Thursday, December 20, 2012

एक घुटी हुई चित्कार


बचपन में भूतों और राक्षसों से बड़ा डर लगता था। एक बार एक पत्रिका में एक भयानक राक्षस की तस्वीर देखी जो एक मासूम असहाय लड़की पर झपट रहा था और उसकें नीचे लिखा था ‘बलात्कार’ । मैं डर गया, दिल की धड़कन तेज हो गई, सांसे जोरो से चलने लगी, वो पत्रिका मेरी सबसे भयावह कल्पना की वास्तविक्ता का प्रमाण दे रही थी। माँ ने फ़िर समझाया, भूत राक्षस कुछ नहीं होते, वो तो किसी और चीज के बारे में लिखा है, मुझे वो पूरा लेख पढाया गया जो कि मुझे रत्ती भर भी समझ नहीं आया पर मैं खुश था कि भूत राक्षस नहीं होते पर आज एहसास हुआ कि माँ गलत थी, बहुत ज्यादा गलत । वो राक्षस सदियों से है और अब वो इतना भयावह और विशालकाय हो चुका है कि उसके अस्तित्व को झूठला कर खुद को सुरक्षित होने का दिलासा देना ढोंग के अलावा कुछ न होगा।

इंसान की, खास कर हम भारतियों की मूल प्रवत्ति होती है कि किसी भी दुर्घटना के प्रति संवेदना जताते समय हम ये कभी नहीं सोचते या कहे की ये नहीं मानते कि वो चीज हमारे साथ भी हो सकती है । ‘तमाशा’ एक राष्ट्रीय शगल बन चुका है और हम तमाशबीनों को मनोंरजन के दूसरे साधनों से ये त्वरित उत्तेजना और आवाज उठाने के दिखावे में ज्यादा मजा आता है या यूँ कहे कि आदत हो चुकी है। ‘आम आदमी’ के आवरण में हमनें बहुत अच्छे तरीके से अपनी जिम्मेंदारियों से मुँह मोड़ लिया है, खुद के नाकारापन को कमजोरी का बहाना और दायित्व को जिम्मेदारियों और व्यस्तता का बहाना बना कर टाल दिया है।

ये सब कुछ लिखते हुये मुझे खुद के दोगलेपन का भी एहसास है। इस विषय पर बहुत समय से लिखने की ईच्छा थी पर कभी आलस के कारण तो कभी इस डर के कारण की इस उम्र में इतने गंभीर विषय पर लिखा तो लोग क्या सोंचेंगे लिख नहीं पाया। आज लग रहा है कि आवाज उठाओं चाहे कोई ना सुने पर मन में ये अपराधबोध तो नहीं रहेगा कि हमने कुछ ना करा। कुछ निराशावादी और हर चीज को तर्क में तोलने वाले लोग कहेंगे कि कुछ लेख लिख कर या फ़ेसबुक पे ‘स्टेटस’ डाल कर क्या पा लोंगे। काश वे समझ पाते की बदलाव की शुरुवात एक आवाज से ही होती है और अगर वे कुछ नहीं कर सकते है तो कम से कम दूसरों की टाँगे खींचना और हतोत्साहित करना तो बंद करें।

ये आक्रोश ये तमाशा ये अनिंयत्रित विचार, ये बेबसी, ये मजबूर और कमजोर होने का अहसास कुछ नया नहीं है। गोवा का स्कारलेट केस याद आता है, जहाँ 15 साल की बच्ची के साथ हुई बर्बरता और क्रुरता को चंद तार्किक लोगो ने यह कह कर झुठलाया था कि उसका और उसकी माँ का चाल चलन ठीक नहीं था। क्या किसी इंसान से इंसान होने का अधिकार छीन लिया जायेंगा अगर वो समाज के कुछ पैमानों पर खरा नहीं उतरता ? गाँव के वे किस्से याद आते है जहाँ महिलाओं को डायन करार दे उनके साथ पाशविक व्यव्हार किया जाता है। किस्से तो बहुत है पर इंसाफ़ की मंजिल तक कितने पहुँचे नहीं पता। कितनो ने एक कड़ा संदेश दिया समाज को नहीं पता ।

अभी कड़ी सजा पर जोरो से बहस चल रही है जो कि चलती आयी है। एक और किस्सा आता है जब एक नर्स ने इच्छामृत्यु की याचिका दायर की थी क्योंकि वो सालों से विशिप्त थी शारीरिक रूप से, ना बोल सकती थी ना ज्यादा हिल सकती थी। उसी के अस्पताल के एक कर्मचारी ने ज्यादती की थी उसके साथ । उसे 7 साल की सजा हुई, सजा काट कर वो बाहार आया, नौकरी की, शादी की और एक सामान्य जीवन बिताया जबकी उस बेकसूर को बिना किसी बात की ताउम्र सजा हुई, उसका अपराध सिर्फ़ एक महिला होना था जो कि लोगो की सेवा कर रही थी।

‘लाभ के पद’ का विधेयक हो या फ़िर ‘ वेतन वृद्धि’ , ‘ आरक्षण’ का मसौदा हो या फ़िर कोई और निजी राजनितिक हित, हमारी पूरी संसद एक खड़ी नजर आती है। कोई हंगामा नहीं कोई हल्ला नहीं, समाज के सबसे संभ्रात वर्ग होने का दिखावा बड़ी खूबी से करते है हमारे राजनेता। पर कड़े कानून की बात हो या 33% महिला आरक्षण की, सब बटे नजर आते है। समाजवादी होने का दावा करने वाले एक नेता कहते है कि हम नहीं चाहते की सदन में लिप्स्टिक लगाये औरते आये। क्या औरतो की पहचान सिर्फ़ मेकअप करने और सजने सँवरने से है ? उनकी प्रतिभा, मेहनत और दिमाग का कोई मोल नहीं ? पड़ोसी देशों को पिछड़ा, दकियानूसी , संकीर्ण कहने वाले हम दोगले लोग यह भूल जाते है कि वहाँ पर सियासत मे महिला प्रतिनिधियों की संख्या हमसे कई ज्यादा है।

लोग सख्त कानून की माँग कर रहे है, पर क्या वो लागू हो पायेंगे ? और क्या फ़िर हम उनका दुरपयोग होने से बचा पायेंगे ? जरुरत सोच में बदलाव की है, कानून में नहीं। हमारी न्याय व्यवस्था की बुनियाद ही यहीं है कि सौ गुनहगार बच जायें एक बेकसूर को सजा ना हो । बेकसूर का तो पता नहीं पर सौ गुनहगार हर बार बच जाते है। निचली अदालत से उच्च न्यायलय फ़िर सर्वोच्च न्यायालय व्यक्ति न्याय की आस ले कर सालों चप्पल घिसता है, जो गिने चुने को न्याय मिलता है वो फ़िर राष्ट्रपति की दया याचिका का इंतजार करते है, और जैसा की प्रतिभा पाटिल ने किया था, अनेक बलात्कारी छुट कर समाज को मुँह चिड़ाते है। रुचिका कांड में परिजनो ने अंततः हार मान ली पर राठौर की हँसी आज भी एक डरावने सपने की तरह सताती होगीं उन्हें।

हम भारतीय यूँ तो लाख अपना गुणग़ान कर ले, विदेशियों को सौ गाली दे दें कि उनमें भावनाये नहीं, मान सम्मान संस्कृति नहीं, वो सिर्फ़ भौतिक सुखों के लिये जीते है, पर हमारी मर्यादा, पैमाने, अभिमान सब खोखले और झूठे है। घर से निकलते हुए माँ बाप बच्चे को यही बोलते है, बेटा किसी से लड़ाई झगड़ा मत करना, किसी दूसरे के पचड़े में मत पड़ना, अपने काम से मतलब रखना और चुप रहना । क्या अपराधों में बढोतरी का कारण माँ बाप की ये सोच नहीं, पर वो भी क्या करे, उन्हें अपने बच्चों की सुरक्षा की चिंता है, वक्त आने पर ना समाज साथ देता है ना व्य्वस्था।

थोड़े दिन पहले ही कुछ दोस्तों से जो सभी लड़किया थी इस विषय पर चर्चा हुई थी, उनका मत था की इन सब से बचने के लिये लड़कियों को रात को बाहर निकलना ही नहीं चाहिये। क्या दिल्ली मे हुई घटना की जिम्मेदार ये लड़कियाँ नहीँ जो अपनी सुरक्षा के लिये अंदर ही रहती है और दूसरी लड़कियों को अकेले छोड़ देती है भूखे भेंड़ियों के बीच । क्या दिल्ली के वहीं रास्ते और वही बस अगर महिलाओं से भरी रहती तो क्या कोई बदचलन जरा भी गुस्ताखी करने की हिम्मत कर पाता। क्या लड़किया थोड़े समय के लिये भी खुद को कमजोर ना मान रास्तों पर निकले तो उनकी इतनी तादाद देख कोई भी उन पर उँगली या आँख उठा पायेंगा?

मेरे इस मत से शायद बहुत लोग सहमत ना हो पर मुझे यही लगता है कि समाज या कानून का मुँह ताकने के बजाय महिलाओं को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी। और सिर्फ़ खुद के लिये ही नहीं हर उस महिला के लिये आवाज उठानी होगी जिसके लिये रात को निकलना एक मजबूरी है। जैसे नाना पाटेकर एक फ़िल्म में एक मदद को पुकारते बच्चे को जुल्म करने वाले पर पत्थर मारने को कहता है वैसे ही पत्थर महिलाओं को खुद को ही उठाने होंगे और मारने भी होगे।
क्या गुनहगार वो फ़ेयर एड लवली का विज्ञापन नहीं जो ये दर्शाता है कि महिला सिर्फ़ उनकी क्रीम लगा कर ही आत्मविश्वास प्राप्त कर कुछ बन सकती है ? क्या गुनहगार वो भीरू दोरूपी लोग नहीं जो लड़कियों के साथ हुये दुराचार के लिये उनके कपड़ो और चाल चलन को ठहराते है ? क्या गुनहगार वो फ़िल्म नहीं जिसमे महिलाओं को बस ग्लेमर की गुड़िया की तरह परिभाषित करते है ? क्या गुनहगार वो माता पिता नहीं जो अपनी बेटी कि सुरक्षा का सोच दूसरों की बेटियों के बारे में भूल जाते है ? क्या गुनहगार वो समाज नहीं जो ढकोसलों और कायदे कानूनों से कभी ऊपर नहीं उठ पाया ना ही उठ सकता है ? क्या गुनहगार वो इतिहास नहीं जहाँ राजपूत महिलाओं को इज्जत बचाने के लिये लड़ने के बजाय गौहर पर मजबूर किया जाता था। सवाल कई है, पर जवाब किसी के पास नहीं और ना ही कोई जवाबदेह है।

बलात्कार भी एक तरह का आतंकवाद ही है, जो मजहब के नाम पर नहीं वरन लिंग के नाम पर है। नसरुद्दीन शाह एक फ़िल्म में कहते है कि आम आदमी जब भी कुछ ऐसा घटता है तो दो चार दिन चैनल पलट लेता है और शुक्र मनाता है कि चलो हम बच गये। कब तक हम अपनी बारी का इंतजार करेंगे ? कब तक हम डर कर छुप कर, रात को नहीं निकलना, यहाँ अकेले नहीं जाना कह कर महिलाओं के अधिकार और ईच्छा दोनों को मारेंगे। वक्त आवाज उठाने का है, जो चिंगारी अभी जली है उसे शमा बना कर हर समय प्रज्वलित करने का है वरना हमारी याददाश्त इतनी कमजोर है खुद के घावों को ही भूल जाते है तो अभी दूसरों के घावो पर मरहम लगा क्षणिक रुदन करने का क्या फ़ायदा। 

दिल्ली में अविश्वसनीय ईच्छाशक्ति और साहस दिखाती उस मासूम की घुटी हुई चित्कार से जागे समाज की आँखे कब तक खुली रहेंगी ये तो वक्त ही बतायेंगा । मेरा उद्देश्य किसी को आहत करना या कोई विवाद पैदा करना नहीं वरन एक चिंतन की जरुरत दर्शाने का है, कहने को बहुत कुछ है पर ना शब्द बचे है अब ना कोई जरीया बस ये कह कर अपनी बात समाप्त करुँगा ।


कब तक खोंखले आँसू बहायेगा ये समाज
कब तक अपनी अकर्मण्यता पर मुस्कायेंगा ये समाज।
गुनाहगार तो बेधडक कर चले अपनी करतूतें
कब तक मासुमों को कटघरे मे लायेगा ये समाज ॥