निकला था जब डगर पर
द्र्ढनिश्चय और विजय की प्रतिज्ञा कर
आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति से सुस्जित
जिगर मजबूत,मन तैयार करने जीत सुनिश्चित
राह के मध्य ही लड़खड़ाये कदम
थमे पग लगे सब छ्द्म्म
बीच मझदार ही अटकी नैया
दिखे न साहिल, क्या करे खैवय्या
तपे तन, मायूस मन गया चैन
घबराया दिल, दिमाग सुन्न, अश्रुपर्वित नैन
बीच राह ही छोड़ी आशा
मन मस्तिष्क चहु और निराशा
सोचा फ़िर हारने से पहले ही
क्यो मान लूँ हार
है जान जब जिगर में
करता रहुँ तब तक वार
ना पलट सकता अब मैं
सफ़र के इस मोड पर
क्यों ना लगा दू पुरी ताकत
शायद पहुँच जाउँ उस छोर पर
बीच में भागने पर क्या मिलेगा
लो ठान तो पहाड़ भी हिलेगा
हारने से तो अच्छा कोशिश करना
पहले ही क्या हार से डरना
क्यो न भीड़ जाऊँ पुनः जीजान से
क्यो न जुट जाऊँ पुन: ठान के
क्यों न करु कोशिश सच्चे मन से
क्यो न चलू पुनः खुद की ताकत जान के
बढाये पग जैसे ही कुछ दुर
लौट आया चेहरे का नूर
दिखी मंजिल चंद कदमो पर
झूम उठा शरीर का अंग हर
पहुँचा जब अपने गंतव्य
लगा सफ़र ही था भव्य
सिखा दोबारा उठना , चलना और लड़ना
और धारा के विपरीत बहना
Saturday, July 2, 2011
आशिक का असमंजस
जब निहारा था पहली बार तुम्हे
तब भी एक प्रश्न उठा था
अब भी निहारता हुँ जब तुम्हे
वही प्रश्न फ़िर उठता है
इकरार तो कर बैठे खामोशी से
अब इजहार कैसे करे
कभी एकटक देखता रह जाता हुँ
कभी भावनाओ मे बह जाता हुँ
कभी सब कह भी खामोश रह जाता हुँ
बस जो चाहु वो नहीं कह पात हुँ
होठ कपकपाते है, पग डगमगाते है
लाख रोको तो भी आँसू छलक आते है
मेरी खामोशी भी कभी सुनो
मेरी बेकरारी भी कभी चुनो
कितने ही कागज भर दिये
सभी बस व्यर्थ कर दिये
सोचता हु खुद कागज बन जाऊ
खामोशी कलम मेरी, सब लाल स्याही से भर जाउ
तब भी एक प्रश्न उठा था
अब भी निहारता हुँ जब तुम्हे
वही प्रश्न फ़िर उठता है
इकरार तो कर बैठे खामोशी से
अब इजहार कैसे करे
कभी एकटक देखता रह जाता हुँ
कभी भावनाओ मे बह जाता हुँ
कभी सब कह भी खामोश रह जाता हुँ
बस जो चाहु वो नहीं कह पात हुँ
होठ कपकपाते है, पग डगमगाते है
लाख रोको तो भी आँसू छलक आते है
मेरी खामोशी भी कभी सुनो
मेरी बेकरारी भी कभी चुनो
कितने ही कागज भर दिये
सभी बस व्यर्थ कर दिये
सोचता हु खुद कागज बन जाऊ
खामोशी कलम मेरी, सब लाल स्याही से भर जाउ
लफ़ंगे परिंदे
यौवन आते ही उन्मुक्त हो उठे
उन्माद में भयमुक्त हो उठे
जमीं से कहा उगे थे जो
आसमा से उँचे हो उठे
पहली आजादी के अहसास से
खुलेपन की सास से
चलना कहा सिखा था
गिर पड़े उड़ने के कयास से
हवाओं से बाते करते थे
रफ़्तारो से मुलाकातें करते थे
कब मौत ने जिंदगी को पछाड़ दिया
हम तो आपसी हौड़ लगाया करते थे
फ़िक्र को धुआ करने मे
सूखे कंठ में मिठास भरने मे
कश लगाया पहली बार
हर पहलु का आभास करने मे
न जाना इस दलदल को
न माना इस हलाहल को
धसते गये इस मीठे जहर मे
लील गया धुआ जीवन को
उलझन तो महज बहाना था
रंगीन पानी में नहाना था
जाम पर जाम लेते थे
जीवन ही हमे भुलाना था
बेखुदी में खुदी खो बैठे
तैरने मे जमीं खो बैठे
बहकावा तो पल भर का था
पल भर मे कल खो बैठे
प्यार के बुखार मे
अपरिप्क्व इश्क की हार मे
प्यार का मतलब जाना नहीं
डुब गये फ़ंस बीच मंझधार में
थे न हम कभी खुदा के बंदे
हर नए मोड़ पर गुमनाम कांरिदे
खुला आसमां देख भटक गये
अब परकटे हम लंफ़गे परिंदे
उन्माद में भयमुक्त हो उठे
जमीं से कहा उगे थे जो
आसमा से उँचे हो उठे
पहली आजादी के अहसास से
खुलेपन की सास से
चलना कहा सिखा था
गिर पड़े उड़ने के कयास से
हवाओं से बाते करते थे
रफ़्तारो से मुलाकातें करते थे
कब मौत ने जिंदगी को पछाड़ दिया
हम तो आपसी हौड़ लगाया करते थे
फ़िक्र को धुआ करने मे
सूखे कंठ में मिठास भरने मे
कश लगाया पहली बार
हर पहलु का आभास करने मे
न जाना इस दलदल को
न माना इस हलाहल को
धसते गये इस मीठे जहर मे
लील गया धुआ जीवन को
उलझन तो महज बहाना था
रंगीन पानी में नहाना था
जाम पर जाम लेते थे
जीवन ही हमे भुलाना था
बेखुदी में खुदी खो बैठे
तैरने मे जमीं खो बैठे
बहकावा तो पल भर का था
पल भर मे कल खो बैठे
प्यार के बुखार मे
अपरिप्क्व इश्क की हार मे
प्यार का मतलब जाना नहीं
डुब गये फ़ंस बीच मंझधार में
थे न हम कभी खुदा के बंदे
हर नए मोड़ पर गुमनाम कांरिदे
खुला आसमां देख भटक गये
अब परकटे हम लंफ़गे परिंदे
तेरे रुठने की मैं क्यों परवाह करू
तेरे रुठने की मैं क्यों परवाह करू
विरह पर मै क्यों आहें भरू
आँसू मेरे तो कभी देख न सकी
तेरे आँसू की अब क्यों फ़िकर करू
प्यार तेरा क्षणिक था, पूजा तेरी निरर्थ
पत्थर दिल तू पत्थर पूजे, भक्ति तेरी व्यर्थ
खुद को कभी न जान पायी
मुझमें खुदा कैसे दिखेगा
निः छ्ल प्यार न पहचान पायी
अब पछताने से क्या मिलेगा
प्यार को कभी न समझ पायी
अब प्यार को बदनाम करती हो
वफ़ा कभी न कर पायी
अब बेवफ़ा कहलाने से बचती हो
मैं तो तन्हा मुसाफ़िर था
तुम हमसफ़र बन गयी
राहें लम्बी हो चली
अड़चने और बढ गयी
मैने शिकायते न की पर
साथ छुटने का जो था डर
कब खामोशी कमजोरी बन गयी
प्रीत पुस्तक कोरी ही रह गयी
अपनी मंजिल तो पा ली तुमने
दूसरे राहियो को आसरा भी दे दिया
मैं मंजिल से ऐसा भटका
तुम्हारा साथ मंजिल लगा
साथ वो बस छलावा था
वादे वो बस झूठे थे
मोहब्बत की राह चल के मालूम हुआ
हकीकत से परे ख्वाब वे अनुठे थे
विरह पर मै क्यों आहें भरू
आँसू मेरे तो कभी देख न सकी
तेरे आँसू की अब क्यों फ़िकर करू
प्यार तेरा क्षणिक था, पूजा तेरी निरर्थ
पत्थर दिल तू पत्थर पूजे, भक्ति तेरी व्यर्थ
खुद को कभी न जान पायी
मुझमें खुदा कैसे दिखेगा
निः छ्ल प्यार न पहचान पायी
अब पछताने से क्या मिलेगा
प्यार को कभी न समझ पायी
अब प्यार को बदनाम करती हो
वफ़ा कभी न कर पायी
अब बेवफ़ा कहलाने से बचती हो
मैं तो तन्हा मुसाफ़िर था
तुम हमसफ़र बन गयी
राहें लम्बी हो चली
अड़चने और बढ गयी
मैने शिकायते न की पर
साथ छुटने का जो था डर
कब खामोशी कमजोरी बन गयी
प्रीत पुस्तक कोरी ही रह गयी
अपनी मंजिल तो पा ली तुमने
दूसरे राहियो को आसरा भी दे दिया
मैं मंजिल से ऐसा भटका
तुम्हारा साथ मंजिल लगा
साथ वो बस छलावा था
वादे वो बस झूठे थे
मोहब्बत की राह चल के मालूम हुआ
हकीकत से परे ख्वाब वे अनुठे थे
Friday, July 1, 2011
मन के संशय
बचपन में बाबा भारती और खड्गसिंह की कहानी पढी थी । खड्गसिंह धोखे से एक असहाय बन बाबा का घोड़ा चुरा लेता है और बाबा बस इतनी विनती करते है कि ये वाकया किसी को बताना नहीं वरना लोगो का मन परोपकार एवं सहायता से उठ जायेंगा। बाबा के इस नि:स्वार्थ व्याव्हार से खड्गसिंह का ह्र्दय परिवर्तित हो जाता है एव वह घोड़ा लौटा देता है । मेरे बालमन पर भी गहरा प्रभाव रहा इस कहानी का, सोचा कुछ भी हो जाये लोगो की मदद करने का मौका नहीं छोड़ेंगे। भले ही चंद लोग मूर्ख कह के हँस ले, भले ही चंद लोग सोच ले की हमने फ़ायदा उठा लिया पर अनिश्चितता में आकर कभी किसी जरूरतमंद से मुँह मोड़ना इंनसानित से भागना एव अपने नैतिक दायित्वों से मुँह मोड़ना होगा।
वक्त आगे बढा। परिस्थितिया बदली तो उनके हिसाब से लोग भी और उनकी नीयते भी पर मैने अपने मूल स्वभाव मे बदलाव लाना उचित ना समझा। एक और कहानी सुनने मे आयी। साधु और बिच्छु की, एक साधु डुबते हुये बिच्छु को अपने हाथो मे लेकर बचाता है और बिच्छु अपने स्वभाव से विवश हो उसे काट लेता है, ये वाकया बार बार दोहराया जाता है। जब साधु से कारण पूछा गया तो उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया कि अगर ये जानवर होते हुये अपना मूल स्वभाव नहीं त्याग सकता तो मैं तो इन्सान हुँ। मन थोड़ा और खुश हो गया सोचा कि यही आदर्श सही है, अगर किसी स्वार्थी या बेवकुफ़ की मदद से अपने को कोई हानि ना हो रही हो तो फ़िर क्या हर्ज है। लेकिन अब लगता है कि इस भौतिक युग मे इंसान के साधुत्व का कोई मोल नहीं। आप लाख कोशिश करे कि आपकी अच्छाई और सही शब्दों मे की गयी आलोचना से लोग अपना व्यव्हार बदल ले पर होता अक्सर विपरीत ही है।
जब तक आप किसी की मदद कर रहे हो। आप तमाम तरह की उपमाओं और कृतज्ञता से लाद दिये जायेंगे। लोग आपकी तारीफ़ करते नहीं थंकेगे और न चाहते हुए भी आपको खुद पर गुमान होने लगेगा पर जैसे ही आप अपनी मजबुरियों के कारण हाथ खींचेगे वैसे ही आप दानवतुल्य हो जायेगे। आपके पिछले एहसान क्षणभर में मूल्यहीन हो जायेंगे और आपका सम्पूर्ण चरित्रचित्रण इसी एक क्रत्य से किया जायेगा। स्वार्थी, मतलबी, भौतिकवादी तमाम विशेषण आपके नाम के साथ सदैव के लिये जुड़ जायेग़े। ये विडबना ही है कि जब आपकी आलोचना की जाती है तो ये उम्मीद की जाती है कि आप उसे सही अर्थो मे लेंगे भले ही आलोचना का तरीका कितना भी निम्न स्तर का क्यो न हो। पर अगर आप किसी के कमजोर पहलु को उजागर करते हुये उनकी कमजोरी इंगित करते है तो आप स्थायी खलनायक हो जाते है। कभी कभी लोग तारीफ़ की चाह में आकलन की आड़ लेते है और अगर आप इमानदार रहे तो आप को इष्यालु, अनाड़ी और दूसरों की टाँग खिचने वाला समझा जायेगा।
मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि वो तभी खुशी की अनुभूति करता है जब सामने वाला वही कहे जो वो सुनना चाहता हो। उसी व्यक्ति को अपन सच्चा मित्र मानता हो जो उसकी हर बात मूकदर्शक बन के सुनता रहे और उसके हर विचार पर बिना विमर्श किये सहमति देता रहे। जी खोल के तारिफ़ करने वाले व्यक्ति तो कुछ ज्यादा ही अजीज लगते है, भले ही आपका काम तारिफ़ के लायक हो या नहीं। प्रयत्न हमेशा तारीफ़ का पात्र होता है पर परिणाम जरूरी नहीं। आजकल उन्हीं लोगो को सच्चा समझा जाता है जो प्रयत्नशील व्यक्ति की लाख खिल्ली उड़ाये पर परिणाम पर जी खोल कर तारिफ़ करे भले ही वहीं परिणाम उस व्यक्ति के लिये किसी और जगह हँसी का कारण बन जाये। ये बहुत ही कशमकश भरा और जटिल सवाल है कि आप दुसरो पर टिप्पणी करते वक्त पूरी तरह ईमानदार रहे या नहीं और मुझे दुख है कि फ़िलहाल मेरे पास भी इसका कोई जवाब नही और संशह है की कभी होगा । अब किसी की भी मदद करते समय मन में संशय जरूर होता है , क्योंकि आज का खड्गसिंह घोड़ा लौटाना तो दूर बाबा को भी लात मार के दुत्कार देता है ।
वक्त आगे बढा। परिस्थितिया बदली तो उनके हिसाब से लोग भी और उनकी नीयते भी पर मैने अपने मूल स्वभाव मे बदलाव लाना उचित ना समझा। एक और कहानी सुनने मे आयी। साधु और बिच्छु की, एक साधु डुबते हुये बिच्छु को अपने हाथो मे लेकर बचाता है और बिच्छु अपने स्वभाव से विवश हो उसे काट लेता है, ये वाकया बार बार दोहराया जाता है। जब साधु से कारण पूछा गया तो उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया कि अगर ये जानवर होते हुये अपना मूल स्वभाव नहीं त्याग सकता तो मैं तो इन्सान हुँ। मन थोड़ा और खुश हो गया सोचा कि यही आदर्श सही है, अगर किसी स्वार्थी या बेवकुफ़ की मदद से अपने को कोई हानि ना हो रही हो तो फ़िर क्या हर्ज है। लेकिन अब लगता है कि इस भौतिक युग मे इंसान के साधुत्व का कोई मोल नहीं। आप लाख कोशिश करे कि आपकी अच्छाई और सही शब्दों मे की गयी आलोचना से लोग अपना व्यव्हार बदल ले पर होता अक्सर विपरीत ही है।
जब तक आप किसी की मदद कर रहे हो। आप तमाम तरह की उपमाओं और कृतज्ञता से लाद दिये जायेंगे। लोग आपकी तारीफ़ करते नहीं थंकेगे और न चाहते हुए भी आपको खुद पर गुमान होने लगेगा पर जैसे ही आप अपनी मजबुरियों के कारण हाथ खींचेगे वैसे ही आप दानवतुल्य हो जायेगे। आपके पिछले एहसान क्षणभर में मूल्यहीन हो जायेंगे और आपका सम्पूर्ण चरित्रचित्रण इसी एक क्रत्य से किया जायेगा। स्वार्थी, मतलबी, भौतिकवादी तमाम विशेषण आपके नाम के साथ सदैव के लिये जुड़ जायेग़े। ये विडबना ही है कि जब आपकी आलोचना की जाती है तो ये उम्मीद की जाती है कि आप उसे सही अर्थो मे लेंगे भले ही आलोचना का तरीका कितना भी निम्न स्तर का क्यो न हो। पर अगर आप किसी के कमजोर पहलु को उजागर करते हुये उनकी कमजोरी इंगित करते है तो आप स्थायी खलनायक हो जाते है। कभी कभी लोग तारीफ़ की चाह में आकलन की आड़ लेते है और अगर आप इमानदार रहे तो आप को इष्यालु, अनाड़ी और दूसरों की टाँग खिचने वाला समझा जायेगा।
मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि वो तभी खुशी की अनुभूति करता है जब सामने वाला वही कहे जो वो सुनना चाहता हो। उसी व्यक्ति को अपन सच्चा मित्र मानता हो जो उसकी हर बात मूकदर्शक बन के सुनता रहे और उसके हर विचार पर बिना विमर्श किये सहमति देता रहे। जी खोल के तारिफ़ करने वाले व्यक्ति तो कुछ ज्यादा ही अजीज लगते है, भले ही आपका काम तारिफ़ के लायक हो या नहीं। प्रयत्न हमेशा तारीफ़ का पात्र होता है पर परिणाम जरूरी नहीं। आजकल उन्हीं लोगो को सच्चा समझा जाता है जो प्रयत्नशील व्यक्ति की लाख खिल्ली उड़ाये पर परिणाम पर जी खोल कर तारिफ़ करे भले ही वहीं परिणाम उस व्यक्ति के लिये किसी और जगह हँसी का कारण बन जाये। ये बहुत ही कशमकश भरा और जटिल सवाल है कि आप दुसरो पर टिप्पणी करते वक्त पूरी तरह ईमानदार रहे या नहीं और मुझे दुख है कि फ़िलहाल मेरे पास भी इसका कोई जवाब नही और संशह है की कभी होगा । अब किसी की भी मदद करते समय मन में संशय जरूर होता है , क्योंकि आज का खड्गसिंह घोड़ा लौटाना तो दूर बाबा को भी लात मार के दुत्कार देता है ।
Subscribe to:
Posts (Atom)