Thursday, December 18, 2014

क्या हमें हिन्दी बोलने में शर्म आती है ?

अभी कुछ ही दिन हुए हैं पूना जैसे महानगर में आकर, बड़े दफ़्तर में काम करना, बड़े ‘शापिंग माल’ में घुमना, संभ्रात सोसाइटी में रहना, आसान सी जिंदगी बड़ी जटिल लगती है अब, पर कुछ दिनों से एक चीज बार-बार, किसी ना किसी रुप में सामने आ रही थी, दिमाग को कचोट रही थी, क्या हमें हिन्दी बोलनें में शर्म आती है ? जो व्यक्ति हिंदी में बात कर रहा हो, उसे कम पढा लिखा क्यों मान लिया जाता है ? क्यों माँ-बाप अपने 2 साल के बच्चें से भी अग्रेंजी में वार्तालाप करते है, क्या उन्हें ऐसा लगता हैं कि बच्चा अग्रेंजी ना सिखा तो वो दुनिया की दौड़ में पिछड़ जायेंगा ?

जब तक उज्जैन में रहा करता था, जिंदगी में अग्रेंजी का दखल बहुत कम था। फ़िर उज्जैन से कोटा, कोटा से इन्दौर, इन्दौर से पूना, जगह बदलने के साथ अग्रेंजी का प्रभाव भी बढता चला गया। अभी कुछ दिनो पहले पहली बार वातानुकूलित डब्बे में सफ़र किया। बगल वाली सीटों पर एक बुजुर्ग महिला और एक युवा दम्पति मौजुद थे। दोनों ने आपस में बातचीत अग्रेंजी में चालु करी और कुछ घंटो तक अग्रेंजी में ही करते रहे। मुझे थोड़ा अजीब लगा, कि ये लोग सिर्फ़ अग्रेंजी में ही क्यूँ बात कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद जब सब लोगों की अच्छी बातचीत हो गयी तो बाद का पूरा सफ़र सभी ने हिंदी में ही बात की।

इससे एक बात तो समझ आयी कि शायद हम अनजान लोंगो पर हमारे पढे लिखे होने का एवं सभ्रांत होने का प्रभाव डालना चाहते हैं, और वो केवल अग्रेंजी से ही सम्भव हैं हिंदी से नहीं। कहीं भी नये होने पर हम प्रश्न अग्रेंजी में ही पूछते हैं पर थोड़े दिनों बाद ही उन्हीं लोगों से पूरी तरह हिंदी में ही बात होती हैं। चाहें हम ‘कूल’ दिखने के लिये कितनी ही गालियाँ दे अग्रेंजी में, असली गुस्सा जब आता हैं तो गाली भी हिंदी में ही निकलती हैं। लड़की को पटाने के लिये चाहें पहले कितनी भी अग्रेंजी झाड़े, बाद में दिल जुड़ने या टुटने, दोनों समय शायरियाँ हिंदी में ही निकलती हैं। मतलब साफ़ हैं, अग्रेंजी की हमने हमारी जिंदगी पर बस एक परत भर डाल रखी हैं, बाकि दिल में तो हिंदी ही बसती है पर क्या करें, जमाने के साथ जो चलना हैं। हिंदी की हालात उस बुजुर्ग अनपढ़ माँ जैसी हो गयी हैं, जिसके हाथ का खाना तो खाया जा सकता हैं, जिसकी गोद में सर रख कर सोया तो जा सकता है पर जिसे अपने दोस्तों से नहीं मिलाया जा सकता  जिसे किसी बड़ी पार्टी में नहीं ले जाया सकता ।

अभी हाल ही में बड़ा अजीब वाकया देखा। एक दम्पति अपने माता पिता एवं छोटे बच्चे के साथ थे, बहु ने अपने सास ससुर से मराठी में बात की, पति से हिंदी में, और बच्चे से अग्रेंजी में। समझ नहीं आया बहु की तारीफ़ की जाये की सारी पीड़ियों से उसने उचित वार्तालाप बनाये रखा हैं या फ़िर आश्चर्यचकित हुआ जाये कि तीनों पीड़ियों से एक देशी भाषा में बात क्यूँ नहीं की जा सकती। अजीब लगता हैं, जब हिंदी फ़िल्म के सारे पुरूस्कार समारोह अग्रेंजी में आयोजित किये जाते हैं। नायिकाएँ संवादाताओं से विनम्र अनुरोध करती हैं कि वे अग्रेंजी में ही जवाब देंगी क्यूँकि वो धाराप्रवाह हिन्दी नहीं बोल सकती , ताज्जुब हैं आप जिस हिंदी से अपना पेट पालते हो, 2 घंटे पटर पटर हिंदी बोल कर करोड़ों कमाते हो, पर बाद में वही हिंन्दी आप ठीक से नहीं बोल सकते ।



विडंबना हैं, स्कूल में अग्रेंजी में एक पाठ था जिसमें एक देश दूसरे देश पर कब्जा करने के बाद वहा की मातृभाषा का पढाना बंद कर उनकी भाषा का पठन शुरु कर देते हैं। पाठ में बताया जाता हैं किस तरह से आपकी मातृभाषा आपके अस्तित्व और आपकी देशभक्ति को जगाये रखने का जरूरी हिस्सा हैं, एवं किसी भी देश को गुलाम बनाने के लिये सबसे पहले उसके रहवासियों को उनकी भाषा से दूर कर दिया जाता हैं। 1984 नाम के उपन्यास में बताया गया हैं कि अगर लोगो से शब्द छीन लिये जाये, तो आप उनकी सोचने की शक्ति भी छीन लेंगे और आप उन्हें वहीं चीज सोचने पर मजबुर कर देंगे जो आप चाहते है वो सोचे । शायद अग्रेंजो ने हमें इसी तरह गुलाम बनाया और गुलाम बनाये रखा और शायद हम अभी तक गुलाम बने हुए हैं। बड़ा बेकार लगता हैं जब माँ बाप बच्चें पर अग्रेंजी थोप देते हैं, बच्चा अग्रेंजी जानेंगा तभी तो अच्छे स्कूल में अच्छे अंक लाकर किसी अच्छी नौकरी पर लग जायेंगा।

बात सिर्फ़ हिंन्दी की नहीं, सारी क्षेत्रिय भाषाओं और उनकी दुर्गति की हैं। हर व्यक्ति को अपनी जड़ों से उखाड़ा जा रहा हैं, उसकी सोचने की शक्ति उससे छीनी जा रही हैं, उसका मुल्यांकान बस उसकी एक विदेशी भाषा पर पकड़ से किया जा रहा हैं। हम वापास से गुलाम बन रहे हैं, बस इस बार हमें गर्व है इस चीज पर । बच्चों को अग्रेंजी में बोलता देख माँ बाप फ़ुले नहीं समाते हैं, कक्षा में जो बच्चा अग्रेंजी ढंग से ना बोल पाता हो, उसे शिक्षक जाहिल, अनपढ़, मंदबुद्धि और अनेक विशेक्षणों से नवाज देते हैं। अग्रेंजी बोलने वाले लोगो को सभ्य समझा जाता हैं, आदरणीय और अग्रिम समझा जाता है और हिंदी बोलने वाले को ग्रामिण । किसी बड़े रेस्टोरेन्ट जाओं, तो आपको और वहाँ के वेटरों को दोनों को ना चाहते हुए भी अग्रेंजी में बात करनी पड़ती हैं, बड़ा बुरा लगता हैं उनका संघर्ष देखाना अग्रेंजी के साथ। खाना देशी, खाने वाले और बनाने वाले और परोसने वाले देशी तो फ़िर मंगवाने का माध्यम देशी क्यूँ नहीं।

इससे पहले की कुछ समझदार लोग मुझे रुड़िवादी और वक्त के साथ ना चलने वाला समझ लें, मैं ये स्पष्ट कर देना चाहता हुँ कि मुझे अग्रेंजी से कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं हैं, और मुझे विश्वास हैं बहुत लोगो से जो दिन भर अग्रेंजी में बड़बड़ाते रहते है मेरी अग्रेंज़ी 100 गुना अच्छी हैं। भाषा का प्रथम उद्देश्य केवल विचारों को प्रकट करना हैं। अग्रेंजी क्या व्यक्ति को फ़्रेंच, जरमन, स्पेनिश सब सीखना चाहिये, सारी भाषाओं का साहित्य पढना चाहियें। कितने लोग जो अग्रेंजी का झंडा थामे आगे रहते हैँ उन्होंने एक भी अच्छा अग्रेंजी उपन्यास पढ़ा हैं ? 90% लोग तो अग्रेंजी गलत ही बोलते है, पर हिंदी बोलने वालो का उपहास करते हैं।

कई देश है जहाँ के लोग अग्रेंजी तो जानते है पर वहाँ पर हर जगह आपको उनकी मातृभाषा की ही छाप दिखेंगी। हम भी वहीं काम करते हैं, कालेज के केंटीन से अपनी विदेशी कंपनी के आलीशन आफ़िस में, सारे वार्तालाप होते हिन्दी या स्थानीय भाषा में ही हैं, बस किसी नई जगह, नये लोगो के सामने खास कर किसी बड़े व्यक्ति के सामने हमें हिंदी के प्रभाव पर संशय होता है और हम अग्रेंजी की ढ़ाल ले आते हैं।


आइयें इस सोच को, इस मानसिकता को बदलें। अग्रेंजी भी सीखे, अच्छे से सीखें पर इसे सर पर ना चड़ायें। अपनी स्थानीय भाषा बोलें, आप ज्यादा अच्छे से खुद को प्रकट कर पायेंगे, उचित तरीकें से कर पायेंगे, गलत लिखी या बोली गयी अग्रेंजी की 10 पक्तिंयों से स्थानीय भाषा की एक पक्ति अच्छी। कितने भी पिज्जा बर्गर खालो, पेट तो आखिर माँ के हाथ की बनायी रोटी से ही भरता है । सभी भाषाओं का सम्मान करते हुए आइयें सभी को उस स्थान तक ले जायें ताकि किसी को भी बोलते हुए हमें शर्म ना आयें । 

Monday, November 3, 2014

आखरी मुलाकात

सांझ ढलने पर किसी दिन हम मिले थे
शायद वो हमारी आखरी मुलाकात थी
थोड़ी बेख्याली थी, थोड़ी बेताबी थी
क्योंकि वो हमारी आखरी मुलाकात थी
होठों पर हँसी थी, पर आँखो में नमी थी
साथ होने पर भी, कुछ तो कमी थी
बातों में खामोशी थी, लब्ज भी उदासे थे
किस्सें जो कल तक आम थे, आज बड़े खास थे
थोड़ा चुप में था, थोड़ी चुप तुम थी
खामोश सी वो हमारी आखरी मुलाकात थी
अंधेरा बड़ा सघन हो चला था
चाँद भी बादलों मे छुप चला था
एक दूजे में हम खोये हुए थे
जुदाई के पहले मिलन की वह आखरी मुलाकात थी
कुछ तुम कहना चाहती थी, कुछ मैं कहना चाहता था
कुछ मैं सुनना चाहता थ, कुछ तुम सुनना चाहती थी
थोड़ी उम्मीद थोड़ी आशा, कशमकश से भरपूर
थोड़ी उलझी थोड़ी सुलझी वो हमारी आखरी मुलाकात थी
कुछ तुम्हारी आँखों में मैं खोया था
थोड़ी मेरी आँखों में तुम डुबी थी
नजरों ही नजरों में बातें हो रही थी
इशारो ही इशारो भरी वो हमारी आखरी मुलाकात थी
शायद जिंदगी में अब मिलना ना लिखा हो
मिलेंगे भी तो अजनबी बन कर
तुम तुम ना रहोगी, मैं मैं ना रहुँगा
इसलिये ही वो हमारी आखरी मुलाकात थी। 

Tuesday, September 23, 2014

शरीफ़ों की शराफ़त

हममें से ज्यादातर लोग खुद को शरीफ़ों की पदवी से नवाजना पसंद करते हैं। लड़की के ब्याह के लिये ना केवल शरीफ़ लड़का अपितु पूरा के पूरा खानदान शरीफ़ तलाशा जाता हैं। हम शरीफ़ मोहल्लों में रहना पंसद करतें हैं। केवल शरीफ़ लोगों से संपर्क रखते है। फ़िल्म या खाना खाने भी वही जगह पर जाना पंसद करतें हैं जहाँ पर शरीफ़ लोग आते जाते है, कुल मिला कर देखा जाये तो आम मध्यमवर्गीय भारतीय आदमी की पूरी जिंदगी शरीफ़ों और शराफ़त के बीच कटती हैं।

बचपन में जब बच्चें शरारत करते है तो माँ बाप ये कह कर डाँटतें हैं कि तुम में शरीफ़ों वाले लक्षण नहीं दिखायी दे रहें। बच्चें जब अपने से थोड़े नीचे स्तर वाले और तन पर गंदे कपड़े पहने हुए बच्चों के साथ खेलते हैं तो माँ बाप झिड़क कर कान मरोड़तें हुए ले जाकर कहते हैं कि शरीफ़ बच्चों के साथ खेला करो। कंचे, गिल्ली डंडा, पत्ते और ऐसे अनेंको खेल है जिन्हें आधुनिक मध्यम वर्ग शरीफ़ो के खेल नहीं मानता। सबने आस पास शराफ़त का एक माया जाल बुन लिया हैं जहाँ हम अपने आप को ना केवल सुरक्षित मानते है, साथ ही साथ सभ्य और स्वच्छ भी।

वक्त के साथ साथ शरीफ़ शब्द के मतलब में भी बहुत बदलाव आ चुका हैं। बस में या रेल में जब कोई आदमी जबरदस्ती आपकी सीट पर कब्जा कर लेता है तो आप खुद को शराफ़त की दुहाई देते हुए कोई और जगह तलाश लेते हैं, जब आटो वाला ज्यादा पैसे लेने के लिये झिकझिक करता हैं, तो आप खुद को शरीफ़ व्यक्ति समझ झुक जातें हैं। गणेश चतुर्थी और नवरात्रि के समय जब कोई चंदा माँगने आता हैं तो आप ना चाहते हुए भी ज्यादा रुपये दे जाते हैं। बाहर के मंदिर में जब जोर जोर से भजन बजते है तो आप तकलीफ़ें सहते हुए भी चुप रह जाते हैं। शरीफ़ लोग गुंडो के मुँह नहीं लगते, ऐसा सोचते हुए हम तमाम अत्याचार सहते जाते है। बहुत ही वाजिब वजह चुन ली हैं हमनें अपनी कायरता को छुपाने के लिये।

चुनाव के समय जोर जोर से बज रहें लाउडस्पीकर और उसकी आवज से परेशान हो रहे घर के बुजुर्गों और बच्चों को हम ये बोल कर समझा देते हैं कि राजनीति में बस गुंडागर्दी रह गयी हैं, और हम शरीफ़ लोग हैं। यही शराफ़त का पाठ हम अपने बच्चों को पढा कर उन्हें भी कायर बनाते हैं, कोई दूसरा बच्चा उसे तंग करता हैं तो हम उसे यही बोलते हैं की उससे दुर रहा कर, अलग रहा कर, कभी उसे जवाब देना नहीं सीखाते और क्यों सीखायेंगे , हम शरीफ़ लोग जो हैं। बच्चा जब स्कूल में अध्यापकों की दादागिरी और गलत व्यव्हार सहता हैं और कुछ करने का सोचता हैं तो हम उसे यही बोलते है कि कौन सा तुझे उम्र भर यहीं रहना है, बस पढाई पर ध्यान दे और निकल जा यहा से।कमोबश यहीं स्थिति कालेज में रहती है जब बच्चा पहले सीनियर लोगों के अत्याचार सहता हैं और फ़िर प्रोफ़ेसर के अन्याय और यही सोच कर कुछ नहीं कर पाता कि आवाज उठाने के दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे।



शरीफ़ की परिभाषा अब बस सहना मात्र रह गया हैं, हर जुल्म हर अत्याचार हर वो चीज जो गलत हो रही है उसे आँखे मुंद कर देखो, और खुद के शरीफ़ होने की दुहाई दे कर टाल जाओ। फ़िल्मों में ये सीन काफ़ी बार दिखाया गया है जब कुछ ग़ुंडे किसी लड़की को तंग कर रहे हो या फ़िर जबरन हफ़्ता वसूली कर रहे हो तो आम आदमी “ शरीफ़ लोग गुंडो से कैसे भिड़ेंगे” ये सोच कर बस तमाशबीन बने रहते हैं। फ़िल्मों में तो एक हीरो रहता ही हैं जो 10-10 गुंडो को साथ में पिटता है पर असल जिंदगी का क्या ? बसों और ट्रेनों मे जब कोई किसी लड़की को परेशान करता है तो वहाँ पर कोई हीरो नहीं होता बस मूकदर्शक तमाशबीन भीड़ जो चाहें तो किसी को भी रौंद सकती है पर चाहने की ईच्छाशक्ति ही नही हैं। मैं क्यूँ किसी के झगड़ें में टाँग फ़साँउ, मेरा क्या लेना देना, यह सोच कर हम आगे बढ़ जाते हैं।

पर क्या इतना निश्चिंत होना सही हैं ? हो सकता है , कल आपके साथ कुछ गलत हो, आपसे हफ़्ता वसूली की जाने लगे, आपके मकान पर कब्जा हो जाये, आप ठगी के शिकार हो जायें, तब भी आप शराफ़त के पुतले बने रहेंगे, तब आप लड़ेंगे और पूरी दुनिया को गाली भी देंगे की आपका साथ कोई नहीं दे रहा, कोई आपके साथ नहीं लड़ रहाँ जबकी आप सही हैं। पर दुनिया को क्यों दोष देना, दुनिया भी आप ही की तरह शरीफ़ हैं, और दुसरों के झगड़ो से दूर रहना पंसद करती हैं। हम सब शराफ़त की आड़ में कायर बन बैठें है, और अपने बच्चों को भी वैसा ही बना रहे हैं, आँख मूंद कर सोने का नाटक भर कर रहे है ताकि कोई लाख चाहे तो भी जगा ना सके।

शरीफ़ वो होता है, जो दुसरो को तंग नहीं करता, दुसरे का बुरा नहीं करता, पर जब बात खुद पर आ जाये तो व्यक्ति को आवाज उठाना पड़ती है, लड़ना भी पड़ता है, मार खानी भी पड़ती हैं और मारना भी पड़ता है। शरीफ़ होने का मतलब दब्बु और कायर होना बिल्कुल भी नहीं है। अपमान का घुट पी कर चुप रह जाना और जो भी गलत हो रहा हैं उसे सहना आपका मजबूर होना साबित करता है शरीफ़ होना नहीं। शराफ़त और कायरता में एक व्यापक पैमाने पर अंतर हैं। अगर आप अपने या अपने किसी अजीज के लिये आवाज उठाते है और लड़ते है तो आपसे आपका शराफ़त का तमगा छीन कर आपको झगड़ालु और गुंडा घोषित नहीं कर दिया जायेगा वरन आप लोगो की नजरों में और उपर उठ जायेंगे और आप खुद की नजरों में से गिरने से भी बच जायेंगे।

तो अगली बार जब कुछ गलत होते हुए दिखाई दे तो उसे सहने या नजरअदांज करने के बजाएँ लड़िये और आवज उठाईयें और सबके लिये एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कीजिए । शरीफ़ बनियें कायर नहीं। दुष्यंत कुमार की इस कविता के साथ आपसे विदा लेता हुँ।
कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।  


Thursday, September 11, 2014

मौत तू एक कविता है

‘मौत’, जीवन की शाश्वत सच्चाई, एक ऐसी सच्चाई जिसका सामना करने से हर पल हम भागते रहते है। एक कटु सत्य जिसके बारे में हम बात तक करना पंसद नहीं करते, एक ऐसा मंजर जो हर बार हमे अंदर तक दहला देता है। कमोबश, हम में से हर किसी ने किसी ना किसी रूप में मौत को महसूस कर लिया हैं और हर किसी का अहसास दूसरे से जुदा हैं, हम सब के लिये मौत की अलग अलग परिभाषा हैं और अलग अलग द्र्ष्टिकोण, पर जिंदगी के हर मोड़ हर पड़ाव पर मौत साथ साथ चलती है और हम उसे झुठलाने का असफ़ल प्रयत्न करते रहते हैं।

वैसे तो मैं खुद को अभी उस मुकाम पर नहीं पाता की इतने संवेदनशील विषय पर कुछ लिख सकूँ पर हालही की कुछ घटनाओं ने मजबूर कर दिया। सबसे पहले मेरे पंसदीदा कलाकार और जाने माने अभिनेता ‘राबिन विलयम्स’ का आत्महत्या करना अंदर तक झकझोर गया, जो इंसान खुद अपनी फ़िल्मों में जीने का संदेश देता था, वो खुद अंदर से इतना कितना तन्हा और कुंठित था की ऐसा कदम उठा गया ? ज़िसे ना दौलता की कमी हो, ना शौहरत की और काम भी अपने मन का कर रहा हो, तो क्या कारण रहे होंगे उसके दुनिया को छोड़ने का फ़ैसला करने के ?

अभी कुछ दिनों से मैं अमेरिका का मशहुर टीवी सीरियल ‘केलिफ़ोर्निकेशन’ देख रहा था। उसमें एक किरदार ‘ल्यू ऐशबी ‘ था, बहुत ही जिंदादिल आदमी जो जीवन के हर पल को जीता है वो भी अपने पैमानो से, जिसके लिये जीवन एक पार्टी भर है जहाँ जितना मजा करना हैं कर लो। इस जिंदादिल आदमी का एक उदास और संवेदनशील पहलू भी है, उसकी प्रेमिका जो एक बहुत ही अमीर आदमी की पत्नी है और उसके लाख कोशिश करने पर भी अब उससे कोई ताल्लुक नहीं रखती, पर सीरियल के मुख्या किरदार ‘हैंक मूडी’ के मनाने पर उससे मिलने आती है। शायद पूराने प्यार का सुरूर होंगा या फ़िर अपनी पूरानी गलतियों की ग्लानि, ल्यू सहज रूप से उससे मिलने नहीं जा पाता । हैंक के जोर देने पर वो मिलने के लिये तैयार तो हो जाता है, पर जाने से पहले वो बहुत सारा हेरोईन कोकेन समझ कर ले लेता है, परिणामस्वरूप उसकी मौत हो जाती है। बड़ी ही अजब विंडबना हैं, ऐसा व्यक्ति जिसके पास दौलत और शोहरत दोनों हैं, और बाहर से वो जिंदगी के हर तरह से मजे लेता हुआ दिखायी देता है, अंदर से अपने पूराने प्यार को ना पाने के कारण व्यथित हैं और जब वो प्यार उसके दरवाजे पर खड़ा मिलता है तो जिंदगी अपने दरवाजे बंद कर देती है।

इसी सीरियल से मुझे ‘निर्वाणा’ नाम के बैंड के सदस्य ‘कर्ट कोबेन’ का पता पड़ा, जिन्होंने खुदखुशी की थी और पुन राबिन विल्यम्स की मौत के समय जो प्रश्न दिमाग में आया था, वह फ़िर आ खड़ा हुआ। आम आदमी हमेशा दौलत, शोहरत, इज्जत, सफ़लता के पीछे भागता है और इन्हीं की कशमकश में अपना जीवन गुजार देता है, फ़िर क्या कारण होता है सफ़ल लोगो के मौत को गले लगाने को ? हजारों की भीड़ के चहेते होते हुए भी वो भीतर से इतने तन्हा क्यूँ होते है ? हर तरफ़ से इज्जत और सराहना पाने के बावजुद क्या उन्हें हर पल कचोटता रहता हैं कि वो या तो नशे के आदि हो जाते है। सब कुछ होते हुए भी क्या बाकी रह जाता है कि या तो नशा ही जिंदगी बन जाता हैं या नशा ही मौत का कारण या फ़िर जीवन भी एक नशा भर रह जाता है ?



हालही में फ़ेसबुक की भी दो घटनाओं ने थोड़ा मन को छु लिया। मेरे फ़ेसबुक में एक बंदा था, निजी तौर पर नहीं मिला था मैं उससे पर बस यही पर बातचीत थी। बहुत ही जोशिला और जीवटता भरा इंसान था, एक दिन खबर मिली की उसने खुदखुशी कर ली है, कारण तो पता नहीं। थोड़े दिन पहले फ़ेसबुक पर ही उसके जन्मदिन का संदेश मिला, उसकी वाल पर कई लोग बधाई संदेश लिख रहे थे क्यूंकि उसकी मौत की खबर पूरानी हो चुकी थी और बहुतों को पता भी नहीं था की जिस ईंसान को वो सालों जीने का संदेश दे रहे है वो तो पहले ही मौत की गोद में आराम से सो रहा है। ये द्र्श्य बड़ा ही अजीब लगा।

फ़ेसबुक पर ही एक और मित्र थी, थोड़ी वयसक थी, किसी जमाने में बहुत अच्छी बातचीत थी उनसे पर फ़िर अचानक उनके अंकाउट में कुछ दिक्कत की वजह से बातचीत खत्म हो गयी। थोड़े दिन पहले मैने उन्हें वापस से फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजी और पुन: बात प्रांरभ हुई, जाते जाते वो वादा कर के गयी की अब मुलाकाते होती रहेंगी। 10 दिन बाद ही खबर आयी कि वे बहुत बीमार है और फ़िर उनकी मृत्यु का दुखद समाचार प्राप्त हुआ, मन थोड़ा सा विचलित हो गया। अनेकों लोगो के शोक संदेश देखे और लगा की मौत भी बड़ी अजीब चीज हैं जो लोग सदियो से बात नहीं करते वे भी भावुक हो जाते हैं। कहते हैं कि मौत के समय तो आपके दुश्मन भी आपकी तारीफ़ करने लगते है। किसी समय एक रूसी कहानी पढी थी, एक वैज्ञानिक अपना क्लोन बना कर अपनी मौत का स्वांग गढता है ताकि शोक संदेश में अपनी तारीफ़ पढ सके और इससे पहले की वो अपनी इस अदभुत खोज को दुनिया को बता सके , उसकी बीवी उसे जहर दे कर मार देती है क्योंकि किसी जमाने में अपने अनुंसधान के पीछे पागल हो उसने अपनी बीवी पर थूक दिया था, एक थूक का बदला मौत वो भी जीवन के सबसे रोंमाचक क्षण में जब आपकी सालो की महनत सफ़ल हुई है, बड़ी दिलचस्प कहानी थी।

एक और कहानी याद आ रही हैं एक सरकारी कर्मचारी की जिसका स्थानांतरण एक नक्सली इलाके में कर दिया जाता है और वो अनेक जुगाड़ लगा कर अपना स्थानांतरणीय रुकवाता है क्योंकि उसे डर होता है कि वहा उसे अगवा कर के मार दिया जायेगा। जब वो सफ़ल हो जाता है, तब वो जश्न मनाने के लिये घर मिठाई लेकर जाता है पर दुर्भाग्यवश अगले चौराहे पर एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो जाती है। फ़िर से, वही विडंबना की मौत से आप जितना भागो, कही ना कही उससे मुलाकात हो ही जाती हैं।

किस्सें कहानियां तो ठीक हैं, पर असली जिंदगी मे हम शायद ही कभी मौत का सोचते हैं। हम अपनी परेशानियों, बेबसी, बुरा वक्त, और गंदी किस्मत के तामझाम में इतने व्यस्त होते हैं कि शायद ही हम कभी ईश्वर को जिंदगी के लिये धन्यवाद देते है कभी। काम को कल पर टालने की आदत तो हमारी होती ही हैं और हम बड़े ही निश्चिंत होते है कि कल हम स्वस्थ रहेंगे, कुशल रहेंगे और काम खत्म कर देंगे। हमें जिंदगी बोझ लगती है, अन्याय लगती है, अपना जीवन बेकार और दुसरों का अच्छा लगता है। हम कालेज के नाम से या कालेज में अपने परिणाम से खुश नहीं होते। अच्छे कालेज या नौकरी ना मिलने की शिकायत होती है। अमीर घर में ना पैदा होने से लेकर लंबा कद ना होने की शिकायत, अच्छे पति से शादी ना होने की शिकायत से लेकर ससुराल अच्छा ना होने की शिकायत । हमें जिंदगी से बस शिकायत ही होती हैं पर ना जाने क्यूँ हम ये भुल जाते है कि जिंदगी का एक ही विकल्प है और वो है मौत । एक मौत ही हैं, जो आपको हर शिकायत हर समस्या से मुक्ति दे सकती है, वरना जब तक जीवन हैं, परेशानियां रहेंगी, कठिनाइयाँ होगीं, मुश्किलें मिलेगी । आप पर निर्भर करता है आप सब हँसते हँसते सहे और अपना रास्ता बनायें या फ़िर हर किसी पर दोषारोपण कर एक नकारात्मक व्यक्ति की पहचान बनायें।

जिंदगी सच में बहुत ही जटिल और अनिश्चित हैं, किसी भी पल कुछ भी हो सकता हैं तो हमे जिंदगी का मूल्य जान इसे बरबाद करने की आदतों को छोड़ना चाहिये। रोज सोने से पहले एक बार सोचे जरूर की आज आपने ऐसा क्या किया जो आगे जाकर आपको काम आयेंगा। हर पल को जिये, और शुक्रिया अदा करें क्योंकि आपकी जिंदगी हालाँकि उतनी अच्छी नहीं जितनी आप चाहते हो, पर उतनी बेकार भी नहीं जितना आपके दुश्मन चाहते हैं। और अच्छे लोगों के साथ मधुर संबंद्ध हमेशा बनाये रखे और आगे बड़ कर रिश्तों को बनाये और बचाये रखने का प्रयास करे क्योंकि बुरा वक्त आने पर आपके करीबी और अजीज लोग ही आपकी मदद करेंगे दिखावटी लोग नहीं । जाते जाते गुलजार की कविता के साथ आपसे विदा लेता हुँ।

मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे

 दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
 ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

Friday, August 29, 2014

भीड़ भरी इन राहों पर चलते-चलते

भीड़ भरी इन राहों पर चलते-चलते
कभी हमनें खुद को बहुत अकेला पाया
अपने सपनों का बोझ ढोते-ढोते
कदमों को हर कदम लड़खड़ाता पाया

सपनों को हकीकत बनाने की चाह में
हकीकत को खुद से जुदा पाया
ख्वाब-ख्वाब रह गये, हौंसले यूँ ढह गये
तन्हाइयों में अश्रुओं को निर्झर बहता पाया

महलों में बसने की चाह में
अपने आशियें को कुछ उजड़ता पाया
जो निकले थे सफ़र पर मंजिल पाने
खुद को अब अपने घर से जुदा पाया

नींद तो बहुत थी आँखों में
‘बस कुछ रात और’ सोच खुद को बहलाया
अभी तो मेहनत करने का वक्त हैं
यह सोच कर रोज-रोज खुद को जगाया

अब जब कुछ ख्वाब टुटे है
तो उनकी किरचों को खुद में चुभाया
खुद के ही सपनों से जो हार बैठे
तो हर दर्द को अब खुद में समाया

जमाने की हँसी तो सुन ही रहे थे
अपनी उँगली को भी खुद पर उठाया
गुनाह चाहे किसी का भी हो
दोषी तो हमने खुद को ठहराया

क्यों हम ये भूल बैठे
कि जिंदगी एक ठहराव नहीं
यह एक पड़ाव नहीं
इसमें कोई बिखराव नहीं
यह तो एक बहती सी दरिया है
हर हार कुछ सीखने का जरिया है
क्यों थक बैठें कुछ ठोकरों पर
लंबी मगर खुशनुमा यह डगरिया है

हर हार कुछ सीखा जाती है
थोड़ा दुख तो थोड़ा तजुर्बा दे जाती है
भीड़ में खुशियॉ ना मना पाये तो क्या
कुछ दोस्तों को ही करीब ले आती है

वक्त यें हताश होने का नहीं
खुद से निराश होने का नहीं
माना बड़ी है ये मायूसियाँ
खुद को खुद से खोने का नहीं

हे उजला सवेरा हर काली रात के बाद
हे इन्द्रधनुष घनघोर बरसात के बाद
जरा संयम रखना कुछ देर और
हे जीत ही जीत कुछ मात के बाद

अपने हौंसलो की लो को
अविश्वास के थपेड़ों से बचाये रखना
अपने अत:मन की गहराइयों को
उम्मीदों की किरण से जलाये रखना

हम तो लंबी यात्रा के मुसाफ़िर है
ये चंद थपेड़े क्या हमें डगमगायेंगे
एक दिन हमारे हौंसलो की मशाल से
हमारे हर एक रास्तें जगमगायेंगे