Friday, July 31, 2020

एक शाम रफ़ी साहब के नाम.........

आज रफ़ी साहब की पुण्यतिथि हैं। आज से 40 बरस पहले जब 31 जुलाई को रफ़ी साहब जब दुनिया से विदा हुए थे, कहते है बादल भी फ़ुट फ़ुट कर रोये, पूरी मुम्बई बारिश से सराबोर हो गई। रफ़ी साहब तो पहले ही कह गये थे, ‘‘तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग संग तुम भी गुनगुनाओगे ’’ और हम आज तक उनके नगमें सुन रहे है, सुना रहे है, गुनगुना रहे है। जीवन की मस्ती हो, पहले प्यार का इजहार हो, प्यार का परवान हो, या फ़िर टुटते दिलों की सिसकिया, जीवन से मन उचट जाना या फ़िर भगवान की भक्ती में लीन हो जाना, रफ़ी साहब हर जगह प्रासंगिक है।

रफ़ी साहब का पहला गाना जो सुना था वो ‘‘बहारों फ़ूल बरसाओ सुना’’ था, घर की कैसेट में बजता रहता था जो, पिताजी और बड़ी बहान को काफ़ी पंसद था, हमें तो तब गीत संगीत की ना ज्यादा आदत थी ना ही ज्यादा समझ। फ़िर जैसे जैसे जीवन में आगे बड़े, प्यार हुआ, दिल टूटा, ठोकरे खाई, भगवान की याद आई, मौसम अच्छा लगा या चाँद खुबसूरत लगा, रफ़ी साहब से रिश्ता गहरा होता गया। जिस जमाने में जनता कान में मँहगे हेडफ़ोन लगा कर लिंकिन पार्क और ऐमिनेम सुन रही थी, हम हमारा नोकिया के साथ फ़्री मिला ईयरफ़ोन लगा कर कही शांति से बैठ कर रफ़ी साहब के गाने सुनते थे, खास कर बस या ट्रेन के लंबे सफ़र में रफ़ी साहब का साथ काफ़ी जरूरी था वक्त काटने को। कुछ कूल बच्चों ने हमें देवदास का नाम दे दिया जो घिसे पीटे पूराने गाने सुनता हैं, कालांतर में उनके भी दिल टुटे, जिंदगी ने लताड़ा और उन्हें भी हमारे घिसे पीटे गानों के पीछे का मर्म समझ आ गया और रफ़ी साहब पीड़ी दर पीड़ी प्रासंगिक होते गये।

लड़कपन की शुरुआत होते ही रुमानी लोगो कि प्लेलिस्ट में रफ़ी साहब का आगमन हो जाता है। सब के दिल पूकार ही लेते है ‘‘पुकारता चला हूँ मैं गली गली बहार की बस एक छाँव जुल्फ की बस एक निगाह प्यार की’’। फ़िर थोड़ी दिल्लगी के बाद आप जब इजहार को तैयार हो जाते है तो फ़िर दिल सोचता है कि मेहरबां लिखूँ, हसीना लिखूँ या दिलरुबा लिखूँ हैरान हूँ कि आपको इस खत में क्या लिखूँये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर कि तुम नाराज़ ना होना कि तुम मेरी ज़िन्दगी , की तुम मेरी बंदगी हो। या फ़िर कभी कभी पूछना पड़ता है कि, यूँही तुम मुझसे बात करती होया कोई प्यार का इरादा है ना माने तो मनाने के जतन भी करने पड़ते है, ये माना मेरी जाँ मोहब्बत सजा है मज़ा इसमें इतना मगर किसलिए है। और फ़िर भी ना माने तो  एहसान तो है ही कि जताने तो दिया, एहसान तेरा होगा मुझ पर, दिल चाहता है वो कहने दो, मुझे तुमसे मोहब्बत हो गयी है, मुझे पलको की छाँव में रहने दो।

अगर प्रेमपत्र स्वीकार हो गया तो फ़िर मेहबूबा में कभी चाँद दिखता है तो कभी वो चाँद से ज्यादा हसी दिखती हैं। इसलिये कभी हम गाते है, चौदहवीं का चाँद हो, या आफ़ताब हो / जो भी हो तुम खुदा की क़सम, लाजवाब हो। तो कभी हम गाते है, मैंने पूछा चाँद से के देखा है कहीं, मेरे यार सा हसीन चाँद ने कहा, चाँदनी की कसम, नहीं, नहीं, नहीं । प्यार का खुमार जब अपने सबसे चरम पर होता है तो फ़िर जीवन में सब अच्छा लगता है और पूरा जीवन बस महबूबा के आस पास ही घुमता है। कभी, तेरी आँखों के सिवा दुनियाँ में रखा क्या है, ये उठे सुबह चले, ये झूके शाम ढले मेरा जीना, मेरा मरना, इन ही पलकों के तले, तो कभी तुम जो मिल गए हो, तो ये लगता है, के जहां मिल गया एक भटके हुए राही को, कारवाँ मिल गया

फ़िर जीवन एक खुबसूरत स्वपन बन जाता है एक कविता बन जाता है। जहाँ पर दुश्मनी चिलमन से हैं ये जो चिलमन है दुश्मन है हमारा या फ़िर जुल्फ़े रिशमी और आँखे शरबती लगती हैं, ये रेशमी जुल्फे, यह शरबती आँखे. इन्हे देखकर जी रहे हैं सभी उस जमाने के गीतकारो ने भी रफ़ी जी का भरपूर साथ दिया है, सारे गीत इतने अच्छें उपमा और रूपक अंलकारो से सुस्ज्जीत । वैसे तो काका के अधिकतर हिट गाने किशोर साहब ने गाये है पर रफ़ी और काका की जोडी से अलग ही मधुर गाने निकले हैं।

युवास्था में प्यार के अलावा जो दूसरी चीज हावी रहती है वो है मस्ती। रफ़ी ने जीवन कि खुशी और उर्जा को भी बखुबी शब्द दिये हैं। फ़िर चाहे वो शम्मी साहब का जोर जोर से याहु बोल कर चिल्लाना और पूछना कि ‘ चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ या फ़िर जंपिग जेक जीतू जी का ‘मस्त बाहारो का मैं आशिक् या फ़िर धर्मेन्द्र जैसे जट का ‘यमला पगला दिवाना’ पर बगैर कोरियोग्राफ़ी के नाचना। चाँद मेरा दिल तो मूल सुनो या शाहरुख का सुश्मिता के सामने नीचे झुक कर गाना अच्छा ही लगता है। खतों से रफ़ी साहब का अलग रिश्ता है इसलिये लिखे जो ख़त तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के नज़ारे बन गए सवेरा जब हुआ तो फूल बन गए जो रात आई तो सितारे बन गए प्रेम का कम मस्ती का गाना ज्यादा लगता है।

अब आते हैं रफ़ी साहब के सबसे शक्तिशाली भाग पर, दिल का टुटना। वैसे तो मूल रुप से इस तरह के गानों में सबसे पहले मुकेश साहब की याद आती हैं, पर रफ़ी ने दिल के टुटने को जिया है, एक एक शब्द में दर्द की वेदना का ईजहार किया है। काफ़ी समय तक तो हमने बस क्या हुआ तेरा वादा वो कसम वो इरादा ही सुना था। क्या से क्या हो गया तेरे प्यार में और दिन ढल जाये रात ना जाये, तू तो ना आए तेरी याद सताये से ना सिर्फ़ रफ़ी का पर देव आंनद का भी एक नया रुप देखा। प्यार में जिनके सब जग छोड़ा, और हुए बदनाम, उनके ही हाथो हाल हुआ ये, बैठे है दिल को थाम। 2 पक्तियों मे सब कह दिया।                                                                                                                                              धरम जी तो बद्दुआ देने की हदों के पार करते हुए गाते है मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे मुझे ग़म देने वाले तू खुशी को तरसे तो जीतू जी गाते है की मोहब्बत अब तिजारत बन गयी है तिजारत अब मोहब्बत बन गयी है किसी से खेलना फिर छोड़ देना किसी से खेलना फिर छोड़ देना खिलौनों की तरह दिल तोड़ देना हसीनों, हसीनों की ये आदत बन गयी है हमेशा मस्ती भरे गीत गाने वाले शम्मी साहब को जब उनकी प्रेमिका चुनौती देती है कि मुझे रुला कर बताओ तो वो दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर यादों को तेरी मैं दुल्हन बनाकर रखूँगा मैं दिल के पास मत हो मेरी जां उदास गा कर उसे रुला देते हैं। मनोज कुमार साहब भी पत्थर के सनम तुझे हमने मौहब्बत का खुदा गा कर गम में डुब जाते हैं।

वैसे तो ये सारे ही गाने बहुत ही ज्यादा उम्दा हैं पर अगर मुझे कोई एक गाना चुनना पड़े तो फ़िर में धर्म संकट में आ जाउँगा। दो गानों में काटे की टक्कार रहेंगी। एक ही फ़िल्म और एक ही अभिनेता। संजीव साहब पर फ़िल्माये गये खिलौना जान कर तुम मेरा दिल तोड़ जाते हो या फ़िर खुश रहे तु सदा ये दुआ हैं मेरी, बेवफ़ा ही सही दिलरूबा है मेरी। पता नहीं ज्यदा दर्द रफ़ी साहब की आवाज से आता है या संजीव साहब की अदाकारी से पर दोनों गाने बहुत ही अव्वाल दर्जे के हैं। काफ़ी दुख मनाने के बाद सब आशिक आगे बढ जाते है तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम आज के बाद , ये आज के शब्द मूव आन का रफ़ी वाला वर्जन हैं।




जीवन में दर्द के और भी अलग अलग कारण है, सिर्फ़ प्रेमिका से रिश्ता टुटना नहीं। चाहे फ़िर राजेश खन्ना का अकेले है चले आओ जहा हो सुनो या फ़िर सुनील दत्त साहाब का पत्नी की मौत पर अकेलेपन का दश झेलने पर आपके पहलू में आकर रो दिये गाना हो या फ़िर राजकुमार साहब कभी पत्थर में चुने जाने पर अपने प्यार को बुलाते हुए तुझको पुकारे मेरा प्यार या फ़िर दुनिया का प्यार के प्रति नफ़रत देखने पर ये दुनिया ये मेहफ़िल मेरे काम की नहीं। कभी कभी रफ़ी साहब के निजी जज्बात भी गाने से जुड़ जाते थे जैसे उनकी बेटी की शादी होने वाली थी तो बाबुल की दुआ तो लेती जा गाते समय रफ़ी साहब फ़ुट फ़ुट कर रो पड़े ।

रफ़ी साहब से बड़ी सेक्युलरिसम की या गंगा जमुना तहजीब की कोई मिसाल नहीं है। रफ़ी साहब प्रत्यक्ष प्रमाण है कि कलाकर अपनी साधना में जब लीन हो जाता है तो बस कला का हो कर रह जात है फ़िर उसका कोई मजहब नहीं रहता। हर बात पर मुस्लिमों को गाली देने वाले कट्टर हिंदुओ को नहीं पता कि जो भजन वो बरसो से गाते आ रहे हैं उनमे से कितने दिलीप साहब उर्फ़ युसुफ़ जी पर फ़िल्मायें गये है, नौशाद जी ने संगीत दिया है और रफ़ी ने भक्ती का एक अलग समा बांध दिया हैं। रफ़ी जब शिर्डी वाले साई बाबा गाते है तो सुनने वाले को वही श्रद्धा और सबूरी मिल जाती है। रफ़ी का यूट्युब पर एक मधुबन में राधिका नाची का लाईव वर्जन हैं, इतने कठिन शास्त्रिय संगीत को रफ़ी चेहरे पर एक भी शिकन लाए बिना गा देते है, अद्भुत हैं, जरूर सुनियेगा।

जब रफ़ी भगवान को कोसते हुए ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले गाते है तो लगता हैं कि भगवान से मुख मोड़ने और उनसे ध्यानभंग होने का एहसास यही हैं, शायद ये रफ़ी साहब के गाये सबसे कठिन गानों में से एक हैं, बैजु बावरा के सारे ही गाने बैजोड़ है वैसे। सुख के सब साथी, दुख में ना कोई मेरे राम आपको दुनियादारी समझने के बाद ही समझ आयेगा । और माता रानी की याद आते ही तुने मुझे बुलाया शेरा वालिया रफ़ी की भक्ती की एक और मिसाल हैं।

अब मुझे लिखते लिखते लग रहा हैं कि रफ़ी साहब के अच्छे नगमों का कोई अंत नहीं है। मैं लिखता जाउँगा, बगल में मोबाईल पर गाने भी बजते रहेंगे और ये लिख लंबा होता जायेगा। इसलिये अब अंत की तरफ़ बड़ते हैं कुछ और स्पेशल तरानों के साथ जिसमें सबसे पहले मुझे याद आ रहा हैं मै जिंदगी का साथ निभाता चला गया हर फ़िक्र को धुँए में उड़ाता चला गया।

इस गाने से जीवन का एक किस्सा जुड़ा है, इंजीनियरिंग का आखरी साल था, एक कम्पनी की अमानवीय सी प्लेसमेंट प्रोसस में 2 दिन घीसने और पीसने के बाद बेईजज्त हो कर कमरे में वापस बैठे थे। सुबह से खाना नहीं खाय था, जीवन पर रोश था बहुत और खुद की किस्मत पर आक्रोश्। पर खाने से कब तक नारजगी, बगल की साबुदाना खिचड़ी दुकान पर गये दही वाली खिचड़ी और वड़ा खाने, वहाँ ये गाना बज रहा थ। कुछ अच्छे मौसम का असर था, कुछ खिचड़ी का मजेदार जायका और कुछ इन शब्दों का जादु था बरबादियों का सोग मनाना फ़जूल था मनाना फ़जूल था, मनाना फ़जूल था बरबादियों का जश्न मनाता चला गया जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया मुकद्दर समझ लिया, मुकद्दर समझ लिया जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गयामुड अचानक से मस्त हो गया, जीवन में सब कुछ फ़िर से अच्छा लगने लगा, लगा की भय्या सब कुछ क्षणिक हैं मस्ती में जियो और खाओ पीयो, 2 बड़े और एक प्लेट खिचड़ी निपटा कर वापस कमरे आये खुशी खुशी।

वैसे तो 1961 के चीन युद्ध से प्रासंगिक गाना लता जी का ऐ मेरे वतन के लोगो है पर रफ़ी साहब का कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथिंयो रोंगटे खड़े करने वाला है, खासकर अगर आप विडियो देखेंगे गाने का तो। परदेसियों से ना अँखिया मिलाना जितना मस्ती भरा गान है इसका सेड वर्जन उतना ही दर्द भरा। खोया खोया चाँद तो मिठास भारी आवाज की एक अलग ही मिसाल हैं, इस तरह के गाने वेस्टर्न तरीके से गाकर अनेकों अनेक कलाकर आज भी प्रसिद्ध हो रहे हैं। रफ़ी साहब खुद बोलते है कि मेरे बिना देश में कोई शादी नहीं हो सकती क्योंकि बारत में आज मेरे यार की शादी हैं बजना तो तय है।

वैसे गायक तो हर दौर में अच्छे रहे है, पर रफ़ी एक गायक नहीं है। रफ़ी एक साधक है, रफ़ी का हर गान उनकी तपस्या की मिसाल है। जब तक लोगो के दिलों में भक्ती है, जब तक लोगो के जीवन में प्यार की दस्तक होगीं, जब तक लोगों के दिल टुंटेगे या दुनिया से मोहभंग होगा, रफ़ी साहब प्रांसगिक रहेंगे, रफ़ी साहब अमर रहेंगे।                                                                                                                                                 

Wednesday, July 8, 2020

क्षणिक संवेदनाएँ..........



मनुष्य एक संवेदनशील जीव हैं। थोड़े दिन पहले वो जो ज्ञान भरे फ़ोटो दिख जाते है फ़ेसबुक पर, उस में पढा था कि मनुष्य बाकि जानवरों से इतना ज्यादा आगे इसलिये निकल गया क्योंकि हममें आदिकाल से ही संवेदनाएँ थी, हम अपने कमजोरों और निर्बलों की मदद करकें उन्हें साथ में लेकर चलते थे। जानवरों में भी संवेदनाएँ होती हैं, पर हमसें काफ़ी कम और हमारी जितनी जटिल नहीं, ना ही उनका मस्तिष्क इतना विकसित होता हैं कि वो हमारे जैसा इजहार कर सके, मूक जानवर मन ही मन तड़पता हैं। हम रो सकते है, चिल्ला सकते है, तोड़ फ़ोड़ मचा सकते हैं, दीवारों पर मुक्कें मार सकते है।

आजकल तो और नए तरीके आ गये हैं। वाट्सएप की फ़ोटो हटा दो अपनी ताकि दुनिया उस ग्रे रंग के मुखविहीन तस्वीर में आपके अंदर के खालीपन को देख सके। फ़ेसबुक पर चार गज का निंबध लिख दो, दुनिया में क्या सही हैं, क्या गलत है, है तो क्यू हैं नहीं है तो क्यू नहीं है। आपके पोस्ट पर आये चार पाँच लाईक आपको इतना डोपामिन दे देंगे की रात को नींद अच्छी आएगी।

सोशल मिडिया संवेदनहीन इंसानों के लिये स्वर्ग हैं। वो बिना आहत हुए हर मीम में अपनी खुशी ढुढ लेगा और उस मीम को अलग अलग ग्रुप में डाल कर दुसरों को भी हँसा देगा। पर भावुक लोगो को लिये ये एक टारचर का अस्त्र हैं। आपको दुनिया भर में क्या गलत हो रहा हैं और आप कितने शक्ति-हीन हैं कि इनमें से कुछ भी नहीं बदल सकते का एहसास 5 मिनिट में हो जायेंगा। कहीं किसी देश में ग्रहयुद्ध चल रहा हैं, लाशों के ढेर बिछ गये है। किसी जगह तुफ़ान आ गये, अनेको घर ढह गयें, किसी पूलिस वाले ने या तो ताकत के नशे में या फ़िर अपने विभाग से परेशान हो कर किसी गरीब सब्जी वाले का ठेला तोड़ सब्जियाँ बिखेर दी, किसी मुक जानवर को छ्त से फ़ेक कर मार दिया गया या उसके मुँह में पटाखा फ़ोड़ दिया गया।

MBA के एक कोर्स में पढा था कि बुरी चीजें अच्छी चीजों से 3 गुना ज्यादा असर करती है हम पर । मनोचिकत्सक तो ये भी कहने लगे हैं कि इस पीढी के नाखुश होने की वजह सोशल मीडिया ही हैं। जो कभी हमें दुनिया के दुख दिखाता हैं, तो कभी ये की पड़ोस के गुप्ता जी का बेटा जो पहले टरमीनल परीक्षा में फ़ेल हो जाता था आज अच्छी खासी नौकरी करके 11 लाख की कार खरीद लाया हैं, जबकि आप तो आपके कालेज के सहपाठी मनोज कि यूरोप ट्रिप से ही उभरे नहीं थे अभी।

हमारी संवेदनाए भी अब क्षणिक हैं, हम दुखी हर समय है, पर दुख का कारण सोशल मीडिया के हर एक लोग ईन मे बदल जाता हैं। आप किस राजनितिक विचारधारा का अनुसरण करते हैं, आपको किस जाती के या लिंग के इंसान ने धोखा दिया है, या आप जिसे समझदार समझते है वो किस चीज से दुखी है उस पर भी काफ़ी कुछ निर्भर करता हैं।




कुछ लोगो के लिये दुख का समस्त कारण 1950 के दशक में एक राजनेता के निर्णय है तो कुछ लोगों के लिये दुख देश में 2014 के बाद ही चालू हुए हैं । कामवाली के एक दिन नहीं आने पर तन्ख्वा काट लेने वाले लोग प्रवासी मजदूरों के पलायन पर दुखी हो गये। मीडिया ने भी जम के कहानियाँ प्लांट कर ली, लोगों को पैसे दे कर अपने हिसाब के इन्टरव्यू छाप लिये, आखिर दुख की खबरों में ज्यादा मसाला होता है और वो चलती भी ज्यादा हैं।

बचपन से एसी कमरों मे पली बड़ी एक पूरी पीढ़ी को अचानय ये एहसास हुआ की देश में गरीबी कितनी ज्यादा है और लोग कितने मजबूर और फ़िर सबने अपने हिसाब से समीकरण बना लिये। किसी ने कहा पूलिस की गलती है, एक किसी पुलिस वाले की डंडा चलाने कि विडियो हजार बार शेयर हो जाती है और उसके पीछे वो 100 मामलें दब जाते है जब पुलिस ने मजदूरों की मदद की हो। बीजेपी विरोधियों वैसे भी हर खबर में बीजेपी की नाकामयाबी जोड़ देते हैं, बीजेपी समर्थक बोल देते है कि भाई कांग्रेस ना होती तो गरीबी भी ना होती। एक ही वाकयें से दो अलग अलग आरोपी निकल आते है।

फ़िर आते है वो लोग जो बोलते है की आप आज इस चीज पर दुखी हो रहे है, कल वो घटना पर तो हुए नहीं थे, ये क्या पांखड है। हाथी के मरने पर आँसू बहाने वाले जवानों के मरने पर मौन धारण कर लेते हैं, उन्हें ये दोगलापन लगता हैं। किसी ने कोरोना पर हुई मौत पर कुछ लिख दिया तो एक धड़ा बोलेगा कि आपने पालघर की मौत पर कुछ नहीं लिखा, फ़िर दूसरा बोलेगा आपने CAA के समय की मौत पर कुछ नही लिखा, फ़िर बहुत सारी मौतें आ जायेंगी जिस पर आप चुप थे। कुछ लोग दुखी है कि उनका पंसदीदा फ़िल्मी सितारा गुजर गया, उनकी संवेदनाओं के व्यक्त करने पर कुछ लोग दुखी हैं कि इस आदमी को उस आदमी की मौत पर दुख है जिससे ये मिला भी नहीं ।

हम सब की संवेदनाए क्षणिक है, हमारे पास समय बहुत कम पर साधन और सूचना दोनों बहुत ज्यादा हैं। और हम दूसरों को क्या करना चाहिये क्या नहीं इसमें इतने उलझ गये है कि हम दूसरों के आँसू पोछना भूल गये है, और इस सवाल का जवाब ढुढ रहे हैं कि ये आँसू सहीं विषय पर बह रहे है या नहीं। और अगर सही विषय में भी है तो फ़िर कितनी देर बहेंगे।

क्षणिक आवेश में आकर लिखी गयी ये पोस्ट से अगर किसी को कुछ ठेस पहची हो, तो दिल से माफ़ी, मुझे उम्मीद हैं आपक गुस्सा आपकी संवेदनाओं की तरह क्षणिक होगा।

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