Thursday, December 29, 2011

जिंदगी से जरा औपचारिकता हटाइये

जिंदगी से जरा औपचारिकता हटाइये
जिंदगी में जरा ड्रामा भी लाइये।
सांस तो सभी ले रहे है यहाँ
एक रोज जीने में जिंदादिली भी आजमाइये॥

कभी रसोई में खट रही माँ के पास भी जाइये
अच्छे भोजन का आभार भी जताइये।
स्वाद तो माँ के प्यार का होता है
एक रोज खाने के वक्त सिर्फ़ खाना न खाइये॥

कभी थके हारे पिता के लिये थोड़ा पानी भी लाइये
व्यस्त जीवन का थोड़ा वक्त पिता के साथ भी बिताइये।
डरते तो रोज है पिता की डाँट से
एक रोज जरा सम्मान भी जताइयें॥

कभी बुजुर्गो के साथ आराम भी फ़रमाइये
थोड़ा उनकी सुने कुछ अपनी बतियाइये।
इंतजार रहता है साथ का किसी के उन्हें
एक रोज जरा आशीर्वाद भी पाइये॥

कभी अपने गुरुओं के पैर भी छुकर आइयें
अपनी सफ़लता में उनका योगदान भी बताइयें।
किताबी ज्ञान तो हर कोई देता है
एक रोज जरा मार्गदर्शन भी पाइये॥

कभी अपने यार के कंधे पर सर भी टिकाइये
अपने जीवन में उसका महत्व उसे समझाइये।
हँसना हँसाना रोना रुलाना तो हर वक्त चलता है
एक रोज अपनो से जरा आत्मियता भी बड़ाइये॥

कभी थोड़ा वक्त खुद के साथ भी बिताइये।
दूसरों की तीमारदारी छोड़ खुद को भी आजमाइयें।
बहुत रो लिये दुसरो के गमों में
एक रोज अपने घावो पर भी जरा मरहम लगाइयें॥

Thursday, September 1, 2011

कुछ इस तरह से..............

कुछ इस तरह से दिल में मेरे दस्तक दी तुमने।
न आहट हुई, न सरसराहट हुई।
बस खामोशी में एक रुमानियत का अहसास हुआ॥

कुछ इस तरह से तुम्हारे मेरे जीवन में आगाज हुआ।
न अंदाजा था, न अंदेशा था।
बस तन्हाई के स्याह अधेंरे में रोशनी का अहसास हुआ।।

कुछ इस तरह से मेरे जीवन में रंग भर गई तुम्।
न आभास था, न कयास था
बस बेरंग जीवन के हर हिस्से में जीवटता का अहसास हुआ।

कुछ इस तरह से मन की गहराईयों में उतर गई तुम्।
न अनुमान था, न अभिसार था
बस निष्प्राण मन में चंचल तरंगो का अहसास हुआ।।

कुछ इस तरह से जुदा हो गयी तुम मुझसे
न समझ पाया, न संभल पाया
बस अंदर ही अंदर कुछ टुटने का अहसास हुआ।

कुछ इस तरह से मुझे किनारे कर गयी तुम
न डुब पाया न उभर पाया
बस मध्य मंझदार साहिल की अप्राप्ति का अहसास हुआ

कुछ इस तरह से तुम्हारी यादें संजोये हुँ
न कारण है, न निवारण है
बस पतझड़ में एक गुलशन का निशा भर है॥

Saturday, July 2, 2011

संशय और संघर्ष

निकला था जब डगर पर
द्र्ढनिश्चय और विजय की प्रतिज्ञा कर
आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति से सुस्जित
जिगर मजबूत,मन तैयार करने जीत सुनिश्चित

राह के मध्य ही लड़खड़ाये कदम
थमे पग लगे सब छ्द्म्म
बीच मझदार ही अटकी नैया
दिखे न साहिल, क्या करे खैवय्या

तपे तन, मायूस मन गया चैन
घबराया दिल, दिमाग सुन्न, अश्रुपर्वित नैन
बीच राह ही छोड़ी आशा
मन मस्तिष्क चहु और निराशा

सोचा फ़िर हारने से पहले ही
क्यो मान लूँ हार
है जान जब जिगर में
करता रहुँ तब तक वार

ना पलट सकता अब मैं
सफ़र के इस मोड पर
क्यों ना लगा दू पुरी ताकत
शायद पहुँच जाउँ उस छोर पर

बीच में भागने पर क्या मिलेगा
लो ठान तो पहाड़ भी हिलेगा
हारने से तो अच्छा कोशिश करना
पहले ही क्या हार से डरना

क्यो न भीड़ जाऊँ पुनः जीजान से
क्यो न जुट जाऊँ पुन: ठान के
क्यों न करु कोशिश सच्चे मन से
क्यो न चलू पुनः खुद की ताकत जान के

बढाये पग जैसे ही कुछ दुर
लौट आया चेहरे का नूर
दिखी मंजिल चंद कदमो पर
झूम उठा शरीर का अंग हर

पहुँचा जब अपने गंतव्य
लगा सफ़र ही था भव्य
सिखा दोबारा उठना , चलना और लड़ना
और धारा के विपरीत बहना

आशिक का असमंजस

जब निहारा था पहली बार तुम्हे
तब भी एक प्रश्न उठा था
अब भी निहारता हुँ जब तुम्हे
वही प्रश्न फ़िर उठता है
इकरार तो कर बैठे खामोशी से
अब इजहार कैसे करे
कभी एकटक देखता रह जाता हुँ
कभी भावनाओ मे बह जाता हुँ
कभी सब कह भी खामोश रह जाता हुँ
बस जो चाहु वो नहीं कह पात हुँ
होठ कपकपाते है, पग डगमगाते है
लाख रोको तो भी आँसू छलक आते है
मेरी खामोशी भी कभी सुनो
मेरी बेकरारी भी कभी चुनो
कितने ही कागज भर दिये
सभी बस व्यर्थ कर दिये
सोचता हु खुद कागज बन जाऊ
खामोशी कलम मेरी, सब लाल स्याही से भर जाउ

लफ़ंगे परिंदे

यौवन आते ही उन्मुक्त हो उठे
उन्माद में भयमुक्त हो उठे
जमीं से कहा उगे थे जो
आसमा से उँचे हो उठे

पहली आजादी के अहसास से
खुलेपन की सास से
चलना कहा सिखा था
गिर पड़े उड़ने के कयास से

हवाओं से बाते करते थे
रफ़्तारो से मुलाकातें करते थे
कब मौत ने जिंदगी को पछाड़ दिया
हम तो आपसी हौड़ लगाया करते थे

फ़िक्र को धुआ करने मे
सूखे कंठ में मिठास भरने मे
कश लगाया पहली बार
हर पहलु का आभास करने मे

न जाना इस दलदल को
न माना इस हलाहल को
धसते गये इस मीठे जहर मे
लील गया धुआ जीवन को

उलझन तो महज बहाना था
रंगीन पानी में नहाना था
जाम पर जाम लेते थे
जीवन ही हमे भुलाना था

बेखुदी में खुदी खो बैठे
तैरने मे जमीं खो बैठे
बहकावा तो पल भर का था
पल भर मे कल खो बैठे

प्यार के बुखार मे
अपरिप्क्व इश्क की हार मे
प्यार का मतलब जाना नहीं
डुब गये फ़ंस बीच मंझधार में

थे न हम कभी खुदा के बंदे
हर नए मोड़ पर गुमनाम कांरिदे
खुला आसमां देख भटक गये
अब परकटे हम लंफ़गे परिंदे

तेरे रुठने की मैं क्यों परवाह करू

तेरे रुठने की मैं क्यों परवाह करू
विरह पर मै क्यों आहें भरू
आँसू मेरे तो कभी देख न सकी
तेरे आँसू की अब क्यों फ़िकर करू
प्यार तेरा क्षणिक था, पूजा तेरी निरर्थ
पत्थर दिल तू पत्थर पूजे, भक्ति तेरी व्यर्थ
खुद को कभी न जान पायी
मुझमें खुदा कैसे दिखेगा
निः छ्ल प्यार न पहचान पायी
अब पछताने से क्या मिलेगा
प्यार को कभी न समझ पायी
अब प्यार को बदनाम करती हो
वफ़ा कभी न कर पायी
अब बेवफ़ा कहलाने से बचती हो
मैं तो तन्हा मुसाफ़िर था
तुम हमसफ़र बन गयी
राहें लम्बी हो चली
अड़चने और बढ गयी
मैने शिकायते न की पर
साथ छुटने का जो था डर
कब खामोशी कमजोरी बन गयी
प्रीत पुस्तक कोरी ही रह गयी
अपनी मंजिल तो पा ली तुमने
दूसरे राहियो को आसरा भी दे दिया
मैं मंजिल से ऐसा भटका
तुम्हारा साथ मंजिल लगा
साथ वो बस छलावा था
वादे वो बस झूठे थे
मोहब्बत की राह चल के मालूम हुआ
हकीकत से परे ख्वाब वे अनुठे थे

Friday, July 1, 2011

मन के संशय

बचपन में बाबा भारती और खड्गसिंह की कहानी पढी थी । खड्गसिंह धोखे से एक असहाय बन बाबा का घोड़ा चुरा लेता है और बाबा बस इतनी विनती करते है कि ये वाकया किसी को बताना नहीं वरना लोगो का मन परोपकार एवं सहायता से उठ जायेंगा। बाबा के इस नि:स्वार्थ व्याव्हार से खड्गसिंह का ह्र्दय परिवर्तित हो जाता है एव वह घोड़ा लौटा देता है । मेरे बालमन पर भी गहरा प्रभाव रहा इस कहानी का, सोचा कुछ भी हो जाये लोगो की मदद करने का मौका नहीं छोड़ेंगे। भले ही चंद लोग मूर्ख कह के हँस ले, भले ही चंद लोग सोच ले की हमने फ़ायदा उठा लिया पर अनिश्चितता में आकर कभी किसी जरूरतमंद से मुँह मोड़ना इंनसानित से भागना एव अपने नैतिक दायित्वों से मुँह मोड़ना होगा।

वक्त आगे बढा। परिस्थितिया बदली तो उनके हिसाब से लोग भी और उनकी नीयते भी पर मैने अपने मूल स्वभाव मे बदलाव लाना उचित ना समझा। एक और कहानी सुनने मे आयी। साधु और बिच्छु की, एक साधु डुबते हुये बिच्छु को अपने हाथो मे लेकर बचाता है और बिच्छु अपने स्वभाव से विवश हो उसे काट लेता है, ये वाकया बार बार दोहराया जाता है। जब साधु से कारण पूछा गया तो उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया कि अगर ये जानवर होते हुये अपना मूल स्वभाव नहीं त्याग सकता तो मैं तो इन्सान हुँ। मन थोड़ा और खुश हो गया सोचा कि यही आदर्श सही है, अगर किसी स्वार्थी या बेवकुफ़ की मदद से अपने को कोई हानि ना हो रही हो तो फ़िर क्या हर्ज है। लेकिन अब लगता है कि इस भौतिक युग मे इंसान के साधुत्व का कोई मोल नहीं। आप लाख कोशिश करे कि आपकी अच्छाई और सही शब्दों मे की गयी आलोचना से लोग अपना व्यव्हार बदल ले पर होता अक्सर विपरीत ही है।

जब तक आप किसी की मदद कर रहे हो। आप तमाम तरह की उपमाओं और कृतज्ञता से लाद दिये जायेंगे। लोग आपकी तारीफ़ करते नहीं थंकेगे और न चाहते हुए भी आपको खुद पर गुमान होने लगेगा पर जैसे ही आप अपनी मजबुरियों के कारण हाथ खींचेगे वैसे ही आप दानवतुल्य हो जायेगे। आपके पिछले एहसान क्षणभर में मूल्यहीन हो जायेंगे और आपका सम्पूर्ण चरित्रचित्रण इसी एक क्रत्य से किया जायेगा। स्वार्थी, मतलबी, भौतिकवादी तमाम विशेषण आपके नाम के साथ सदैव के लिये जुड़ जायेग़े। ये विडबना ही है कि जब आपकी आलोचना की जाती है तो ये उम्मीद की जाती है कि आप उसे सही अर्थो मे लेंगे भले ही आलोचना का तरीका कितना भी निम्न स्तर का क्यो न हो। पर अगर आप किसी के कमजोर पहलु को उजागर करते हुये उनकी कमजोरी इंगित करते है तो आप स्थायी खलनायक हो जाते है। कभी कभी लोग तारीफ़ की चाह में आकलन की आड़ लेते है और अगर आप इमानदार रहे तो आप को इष्यालु, अनाड़ी और दूसरों की टाँग खिचने वाला समझा जायेगा।

मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा हो गया है कि वो तभी खुशी की अनुभूति करता है जब सामने वाला वही कहे जो वो सुनना चाहता हो। उसी व्यक्ति को अपन सच्चा मित्र मानता हो जो उसकी हर बात मूकदर्शक बन के सुनता रहे और उसके हर विचार पर बिना विमर्श किये सहमति देता रहे। जी खोल के तारिफ़ करने वाले व्यक्ति तो कुछ ज्यादा ही अजीज लगते है, भले ही आपका काम तारिफ़ के लायक हो या नहीं। प्रयत्न हमेशा तारीफ़ का पात्र होता है पर परिणाम जरूरी नहीं। आजकल उन्हीं लोगो को सच्चा समझा जाता है जो प्रयत्नशील व्यक्ति की लाख खिल्ली उड़ाये पर परिणाम पर जी खोल कर तारिफ़ करे भले ही वहीं परिणाम उस व्यक्ति के लिये किसी और जगह हँसी का कारण बन जाये। ये बहुत ही कशमकश भरा और जटिल सवाल है कि आप दुसरो पर टिप्पणी करते वक्त पूरी तरह ईमानदार रहे या नहीं और मुझे दुख है कि फ़िलहाल मेरे पास भी इसका कोई जवाब नही और संशह है की कभी होगा । अब किसी की भी मदद करते समय मन में संशय जरूर होता है , क्योंकि आज का खड्गसिंह घोड़ा लौटाना तो दूर बाबा को भी लात मार के दुत्कार देता है ।

Thursday, June 30, 2011

भूमिका

जिंदगी में व्यस्तता के साथ जटिलता भी बढ गयी है। इंसान भौतिक सुखो से वशीभूत हो इतना बेबस हो गया है कि खुद के लिये ही समय नहीं निकाल पा रहा, दूसरो की तो छोड़िये। रोज की आपाधापी में कई वाकये ऐसे हो जाते हो जो दिल पर एक अलग छाप छोड़ देते है। कुछ दिल को चोट देते है कि इंसान खून का घूँट पी कर रह जाता है तो कुछ खुशी से सारोबार कर देते है और जीवन हसीन लगने लगता है और हर साँस वरदान। कई बाते मन में ही रह जाती है, जिसके कारण इंसान अंदर ही अंदर सुलगता रहता है। यहीं धुँआ इंसान को घोटता रहता है एव मन अधीर हो जाता है। इसलिये जरूरी है की उन्मादी जज्बातों को सही तरीके से मन से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये ताकि दिमाग शान्त हो सके। जो बाते कही नही जा सकती उसे कहने की इस से अच्छी जगह मुझे नहीं मिली। मुख जितना अनिंयत्रित और अपरिप्कव है, कलम उतनी ही सयंमित और व्यस्क है। मन की बाते मुख के द्वारा वमन करने से अच्छा शांत मन से कलम के सहारे ठंडी हो के निकले।

साहित्य इंसान की रचनात्मकता को दर्शाने के सबसे सरल और सशक्त तरीका है। जहाँ मन में उठ रहे भाव को आप बया नहीं कर सकते, चंद शब्दो की कविता उसमें रस, श्रंगार, चित्रात्मकता एव आध्यत्मिकता का समावेश कर देती है। अक्सर लोग काव्य को कठिन एवं ना समझ आने वाले शब्दों का संकलन समझ लेते है । ऐसी धारणा सिर्फ़ उन्हीं लोगो की होती है जो बाहारी चमक-दमक से प्रभावित हो केवल नाम और पहचान चाहते है। लेखक दिखना एक बात है और लेखक होना अलग बात है। सरल शब्दों से भी आप खुबसूरत या शक्तिशाली संदेश दे सकते है। काव्य कभी बलवश नहीं लिखा जा सकता वरना उसकी छदमता पढने वाले को आसानी से ग्यात हो जाती है, जब तक दिमाग और दिल एक रुप हो भावनाओ को एकाग्र ना कर ले एक प्रभावशाली कविता नहीं जन्मती। हर कविता की कोई ना कोई प्रेरणा अवश्य होती है, चाहे वो आपके निजी जीवन से हो या अनुभव से, पर इससे आपकी परिपक्वता का सार झलकता है।
हालाकि मेरी कविताओ का स्तर इतना उँचा तो नही है पर मेरे लिये वो उसी औषिधी की तरह कार्य करती है जिससे तत्काल सुकुन मिलता है। उम्मीद है आप भी उनसे आनंद पायेंगे।

तो यहाँ तमाम व्यस्तताओ से परे हो कुछ मन की बाते करे, राहत की , सुकून की, जो दूसरो से ना कही जा सके। जो अंदर ही अंदर आपको विचलित कर रही हो, कुछ कही कुछ अनकही।