Monday, May 18, 2020

रामायण, महाभारत, बचपन और जनरेशन गेप


कोरोना महामारी ने सारी जनरेशन्स को घरो मे कैद कर दिया है बच्चे हो या बुढे, जिन सब की दिनचर्याओं में कुछ भी समान नहीं था, अब मोटा मोटा सब एक ही जीवन जी रहे है। उठो, इच्छा हो तो नहा लो वरना जय राम जी की, खाओ पीयो, टीवी देखो, मोबाईल चलाओ और सो जाओ। सरकार ने सोचा की चलो जनता फ़ुर्सत में बैठी हैं, इनको भगवान के ही दर्शन करा देते है वरना लोग बोर होकर घरों के बाहर मटरगश्ती करेंगे, फ़िर पूलिस को लाठिंया भाजंनी पडेगी और फ़िर मीडिया और सोशल मीडिया की फ़ुर्सती जनता पूलिस की बर्बरता पर 4 गज के निबंध लिख देगी।

दिमाग लगाने वालो ने तो इसमें भी मतलब निकाल लिए। किसी को लगा की सरकार देश की सेक्युलर फ़ेब्रिक पर प्रहार कर रही हैं, बस हिंदु भगवानों के नहीं सब धर्म के भगवानो के सीरियल चलाओ। किसी ने बोला की जावड़ेकर साहब को लाकडाऊन के समय अपना मंत्रालय चलाना नहीं आता, किसी ने बोला की ये सब पूरानी चीजें कोई नहीं देखेगा। दूसरी साईड के लोग भी तमतमायें बैठे थे, उन्होने अपना वर्सन निकाल मारा कि हिंदू कब तक अपनी इच्छा मार के बैठे, देश ने बहुसंख्यको के लिये आज तक किया ही क्या है, लोगो ने ये रिपोर्ट भी निकाल दी के कैसे रामानंद सागर को दूरदर्शन वालो ने परेशान किया था क्योकि उस वक्त के प्रबन्धक लेफ़्ट वाले थे और भगवान का नाटक राईट होता हैं।

ये लेफ़्ट राईट सेन्टर का मतलब आम जनता को तो नहीं समझ आता, उनको तो बस चाहिये मनोंरजन, ज्ञान जितना कम पेला जाए उतना अच्छा आम जनता को पहले ही दस परेशानियाँ हैं वो इन सब राजनीति में नहीं पड़ती। इसलिये ज्ञानी लोग कभी उनको बेवकुफ़ बोले देते है, तो कभी असंवेदनशील, कभी कायर तो कभी स्वार्थी, पर ये जो पब्लिक हैं वो सब जानती हैं।

माफ़ कीजियेगा थोड़ा राजनीति की बातों में ईधर उधर निकल गया, इस दौर का दुर्भाग्य ही ये हैं कि हर बात में बीच में राजनीति ही जाती हैं। तो हम बात कर रहे थे रामायण और महाभारत की। वैसे तो ये दोनो नाटक 80 के दशक के है पर 80 के या 70 के या किसी भी अन्य दशक के लोग उतने भावुक नहीं होते है पूरानी चीजो को लेकर जितने 90 के दशक के लोग होते हैं। कभी कभी तो लगता है की 90 के बच्चें 90 में ही रह गये है, वहा से आगे ही नहीं बड़ पायें हैं। या फ़िर उन बच्चों को जीवन में अब तक जो खुशी मिली हैं, आनंद मिला है, शांती मिली है वो 90 में ही मिली थी। फ़िर जिंदगी एक सुनहरे सपने से एक भयानक दुस्वप्न की तरफ़ बड़ चली।




90 के बच्चों की बातों में ले देकर 90 का जिक्र गाहे बाहे ही जाता था। इतने सारे तो फ़ेसबुक पेज, यूट्युब चैनेल चल रहे है इस थीम पर्। दूसरे कई सारे पेज भी लाईक और रीच बड़ाने के लिये समय समय पर 90 से सम्बन्धित कुछ पोस्ट या वीडियो निकालते रहते हैं। तो जब सरकार ने वापस से मौका दिया तो पाँच दिन हफ़्ते के नहा धो कर शर्ट पैंन्ट पहन बनावटी मुस्कान और फ़ीका चेहरा लगा कर दफ़्तर को जाने वाले 90 के बच्चे वापस से रंगबिरंगी टीशर्ट और छोटी चड्डी पहने बच्चे बन गये। गौर करने को बात ये है की इनमें से कई बच्चों के खुद के बच्चे हो चुके है। बरसों से अपने गाँव, अपने शहर, अपने मोहल्लों से दूर किसी बड़े शहर के सींमेट के जंगलों में रास्ता भटक चुके ये बच्चें या तो लाकडाउन की वजह से अपनी चारदीवारी में कैद हैं या फ़िर सही समय अपने घरों को लौट आये थे।

जब सालों से थके ये बच्चे चैन की नींद सोये तो फ़िर सीधा 20 साल पहले उठे। जब मोबाईल नहीं था, ईमेल नहीं था, शुक्रवार की दारू पार्टी नहीं थी, नेट्फ़्लिक्स नहीं था, था तो बस वक्त बहुत सारा जो खत्म नहीं होता था। दिन जो शुरू होता क्रिकेट खेलने से फ़िर घंटो कार्टून देख लो, तरह तरह के खेल खेल लो, सो जाओ, पतंग उड़ा लो, कामिक्स पढ लो, फ़िर भी कुछ घंटे तो बच ही जाते थे। जब 6 दिन स्कूल में बिता एक फ़ुर्सत का इतवार आता था तो दिन की शुरुआत रामायण, महाभारत से ही होती थी। तीरों से निकलती आग, पानी या तूफ़ान, कभी कभी तो साँप या पिशाच भी नोंक पर छुप कर निकाल आते थे, एक तीर से 100 तीर बन जाते थे, राक्षस हर बात पर इतना हँसते क्यूं थे समझ नहीं आता , तब जिंदगी थोड़ी ब्लेक अंड वाईट सी थी हमारे टीवी स्क्रीन जैसी। रावण बुरा हैं, दूरोधन बुरा हैं, भगवान अच्छें हैं और अच्छाई की हमेशा जीत होती हैं, हमें बस इतना पता था।
जीवन ने फ़िर हर मोड़ पर नया तजुर्बा दिया। बुराई को जीतते भी देखा, अच्छाई को हारते भी। 90 के बच्चों को वासुदेव जैसा सारथी ना मिला जो उनके हर बिगड़े काम सुधार दे। बस बड़े बड़े शोध हुए, व्हाईट पेपर लीखे गये, सेमिनार हुए कि ये जनरेशन इतनी दुखी क्यों है, अस्थिर क्यों है, डिप्रेशन में क्यों है, भटकी हुई क्यों हैं। कुछ ज्ञानियों ने बोला की ज्यादा नाज नखरों से पली हैं इसलिये बिगड़ गयी हैं, कुछ ने कहा कमजोर है, कुछ ने कहा की ज्यादा संवेदनशील हैं, कुछ ने कहा की आज में नहीं बस कल में जीती हैं।

2020 में पर एक बहाना मिल गया बचपन को जीने का फ़िर से। रामायण जो रामानंद सागर जी ने बनाई थी और महाभारत जो चोपड़ा साहब ने बनाई थी। हमारे लिये गोविल जी ही राम थे और दारा जी ही हनुमान, पुनित इस्सर जी दुर्योधन थे, शकुनी शब्द सुनते ही गुफ़ी पैंटल की शक्ल दिखती, मुकेश खन्ना यूँ तो शक्तिमान थे पर भीष्म भी वही थे और देवकीनंदन के रूप में नितीश भारद्वाज जी रच बस गये थे।

समय का पहिया घुमा, 2008 में नया रामायण आया और गया, ना ज्यादा अच्छा ना बुरा। फ़िर एकता कपूर जी का महाभारत आया, क्या था पता नहीं क्योंकि देखा नहीं, देखने लायक नहीं था। फ़िर 2013 में नया महाभारत आया और उसी के साथ आया जनरेशन गेप्। हमारे साथ जन्में कुछ लोग जो 90 मे महाभारत नहीं देखे और 2000 के बाद जन्में लोग , उन सब से 2013 वाली महाभारत देखी और उनके लिये वही स्थायी महाभारत हो गई।

कोरा पर लोगो को नितीश जी से ज्यादा सारभ राज अच्छा लगने लगा। डाँ राही मजूम रजा साहब के जो संवाद हमारे दिल को लगते थे, मन को छु जाते थे, वो नयी पीड़ी को उबाऊ लगने लगे। जो अभिनय हमें परिपक्व लगता था वो नयी पीड़ी कोबन्च आफ़ अंकललगने लगा। पूरानी महाभारत 80 के दशक के संसाधानें से बनी थी जाहिर हैं कि संगीत या ग्राफ़िक्स पर नयी का मुकाबला नहीं कर पायेंगी पर महाभारत एक काव्य हैं युद्ध मात्र नहीं और इस काव्य का वाचन सहीं तरह से पूरानी वाली में ही हुआ था, नई वाली तो एक हालिवुड की ऐक्शन फ़िल्म ज्यादा लगती हैं।

कालंतर में अनेक लेखको नें वेद व्यास की महाभारत को अपने हिसाब से बदला हैं जिस वजह से बहुत सारे वर्जन सुनने को मिलते हैं, चोपड़ा साहब ने भी दर्शकों के हिसाब से थोड़ा टेस्ट तो बदला ही। 80 के दशक को हीरो और विलेन टाईप सिस्टम ज्यादा पंसद था तो सिवाय दुर्योधन की कर्ण के प्रति निष्ठा के उसकी कुछ अच्छाई नहीं बताई ना ही पाण्डवों की ज्यादा बुराई। नई महाभारत की जाँच के लिये मैनें बस उसके 2 मुख्य सीन देखे। वासुदेव का अपनी प्रतीज्ञा तोड़ भीष्म पर सुदर्शन चलाना और कर्ण वध। पूराने वाले में जहाँ मुकेश जी द्र्वारा अभीनित पात्र हाथ जोड कर अपनी प्रसन्नता जाहिर करता हैं कि उनका सौभाग्य हैं कि जग के पालनहारी के हाथों उन्हें मुक्ति मिल रहीं है, नयी में भीष्म कृष्ण पर बाण चलाता है और फ़िर जब वे बाण रुक जाते है तो पूछता हैं कि मेरे बाण आप तक पहुँच क्यों नहीं रहे। अत्यन्त हास्यास्पद, क्या भीष्म को कृष्ण की हकीकत नहीं पता ? कृष्ण को सबसे ज्यादा ईज्जत देने वाले भीष्म उन पर बाण चलाएंगे ? अभिनय की द्र्ष्टि से भी अत्यत साधारण, नितीश जी वाली भव्यता सौरभ राज में कभी नहीं लगी।

दूसरा द्रश्य देखा कर्ण वध का। जहाँ पूरानी में नितीश जी के उकसाने पर अर्जुन गुस्सें में निह्त्थे कर्ण पर दिव्यास्त्र चला कर उसका सर धड़ से अलग कर देता हैं और कुछ पल के लिए नितीश जी के चेहरे पर दु; के भाव आते हैं वो कर्ण के लिए सच्ची श्रद्धाँजलि हैं। नये वाले मे बाण कर्ण के गले में धंस जाता है, फ़िर वो तड़पता हैं, फ़िर वहाँ कुंती आती है और उसको अपने ज्येष्ठ पुत्र के रूप में स्वीकार करती हैं, सारे पाण्डु पुत्र विलाप करते हैं, मरते हुए कर्ण और अर्जुन में संवाद होता हैं। कर्ण अर्जुण द्वन्दता में इस से बड़ा खिलवाड़ क्या हीं हो सकता हैं।

मेरे लिये ये दो सीन ही काफ़ी थे नई महाभारत को नकारने के लिए, अभिनय पर तो मैं टिप्प्णी ना ही करू तो अच्छ हैं। पर एक पूरी पीड़ी हैं जिसे ये वाली महाभारत ज्यादा पंसद है। और यहीं शायद जनेरेशन गेप है जो हम 90 के बच्चों को स्वीकारना होगा। आने वाली पीड़ी के टेस्ट हमें समझ नहीं आयेंगे और उन्हे जो अच्छा लगता है वो क्यों और कैसे लगता हैं ये भी नहीं। कैसे रफ़ी मुकेश किशोर के भावपूर्ण गानों से 90 के थोड़े कम काव्य वाले पर सूरीले गानों से जनता EDM और बस ईलेक्ट्रोनिक बीट्स पर गयी, हमें समझ नहीं आयेगा।

यही युद्ध हमने कभी हमसे एक पीड़ी ऊपर से लड़ा था, अब हम अपने सम्मान के लिए लड़ेंगे। हम में से कुछ लोग मेनेज कर लेंगे, कुछ लोग हर जगह हिल मिल जाते हैं, नये तौर तरीके स्वीकार लेते हैं, फ़िर कुछ लोग रहेंगे मेरे जैसे जो 90 के दशक की गुलाबी सुबह, आलस भारी दोपहर, फ़ुरसतों वाली शाम और उन्मुक्त रातों की यादें मन में बसा कर लडते रहेंगे हमारी यादों के लिये।