अभी कुछ ही दिन हुए हैं
पूना जैसे महानगर में आकर, बड़े दफ़्तर में काम करना, बड़े ‘शापिंग माल’ में घुमना,
संभ्रात सोसाइटी में रहना, आसान सी जिंदगी बड़ी जटिल लगती है अब, पर कुछ दिनों से
एक चीज बार-बार, किसी ना किसी रुप में सामने आ रही थी, दिमाग को कचोट रही थी, क्या
हमें हिन्दी बोलनें में शर्म आती है ? जो व्यक्ति हिंदी में बात कर रहा हो, उसे कम
पढा लिखा क्यों मान लिया जाता है ? क्यों माँ-बाप अपने 2 साल के बच्चें से भी
अग्रेंजी में वार्तालाप करते है, क्या उन्हें ऐसा लगता हैं कि बच्चा अग्रेंजी ना
सिखा तो वो दुनिया की दौड़ में पिछड़ जायेंगा ?
जब तक उज्जैन में रहा करता
था, जिंदगी में अग्रेंजी का दखल बहुत कम था। फ़िर उज्जैन से कोटा, कोटा से इन्दौर,
इन्दौर से पूना, जगह बदलने के साथ अग्रेंजी का प्रभाव भी बढता चला गया। अभी कुछ
दिनो पहले पहली बार वातानुकूलित डब्बे में सफ़र किया। बगल वाली सीटों पर एक बुजुर्ग
महिला और एक युवा दम्पति मौजुद थे। दोनों ने आपस में बातचीत अग्रेंजी में चालु करी
और कुछ घंटो तक अग्रेंजी में ही करते रहे। मुझे थोड़ा अजीब लगा, कि ये लोग सिर्फ़
अग्रेंजी में ही क्यूँ बात कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद जब सब लोगों की अच्छी बातचीत
हो गयी तो बाद का पूरा सफ़र सभी ने हिंदी में ही बात की।
इससे एक बात तो समझ आयी कि
शायद हम अनजान लोंगो पर हमारे पढे लिखे होने का एवं सभ्रांत होने का प्रभाव डालना
चाहते हैं, और वो केवल अग्रेंजी से ही सम्भव हैं हिंदी से नहीं। कहीं भी नये होने
पर हम प्रश्न अग्रेंजी में ही पूछते हैं पर थोड़े दिनों बाद ही उन्हीं लोगों से
पूरी तरह हिंदी में ही बात होती हैं। चाहें हम ‘कूल’ दिखने के लिये कितनी ही
गालियाँ दे अग्रेंजी में, असली गुस्सा जब आता हैं तो गाली भी हिंदी में ही निकलती
हैं। लड़की को पटाने के लिये चाहें पहले कितनी भी अग्रेंजी झाड़े, बाद में दिल जुड़ने
या टुटने, दोनों समय शायरियाँ हिंदी में ही निकलती हैं। मतलब साफ़ हैं, अग्रेंजी की
हमने हमारी जिंदगी पर बस एक परत भर डाल रखी हैं, बाकि दिल में तो हिंदी ही बसती है
पर क्या करें, जमाने के साथ जो चलना हैं। हिंदी की हालात उस बुजुर्ग अनपढ़ माँ जैसी
हो गयी हैं, जिसके हाथ का खाना तो खाया जा सकता हैं, जिसकी गोद में सर रख कर सोया
तो जा सकता है पर जिसे अपने दोस्तों से नहीं मिलाया जा सकता जिसे किसी बड़ी पार्टी में नहीं ले जाया सकता ।
अभी हाल ही में बड़ा अजीब
वाकया देखा। एक दम्पति अपने माता पिता एवं छोटे बच्चे के साथ थे, बहु ने अपने सास
ससुर से मराठी में बात की, पति से हिंदी में, और बच्चे से अग्रेंजी में। समझ नहीं
आया बहु की तारीफ़ की जाये की सारी पीड़ियों से उसने उचित वार्तालाप बनाये रखा हैं
या फ़िर आश्चर्यचकित हुआ जाये कि तीनों पीड़ियों से एक देशी भाषा में बात क्यूँ नहीं
की जा सकती। अजीब लगता हैं, जब हिंदी फ़िल्म के सारे पुरूस्कार समारोह अग्रेंजी में
आयोजित किये जाते हैं। नायिकाएँ संवादाताओं से विनम्र अनुरोध करती हैं कि वे
अग्रेंजी में ही जवाब देंगी क्यूँकि वो धाराप्रवाह हिन्दी नहीं बोल सकती , ताज्जुब
हैं आप जिस हिंदी से अपना पेट पालते हो, 2 घंटे पटर पटर हिंदी बोल कर करोड़ों कमाते
हो, पर बाद में वही हिंन्दी आप ठीक से नहीं बोल सकते ।
विडंबना हैं, स्कूल में
अग्रेंजी में एक पाठ था जिसमें एक देश दूसरे देश पर कब्जा करने के बाद वहा की मातृभाषा
का पढाना बंद कर उनकी भाषा का पठन शुरु कर देते हैं। पाठ में बताया जाता हैं किस
तरह से आपकी मातृभाषा आपके अस्तित्व और आपकी देशभक्ति को जगाये रखने का जरूरी
हिस्सा हैं, एवं किसी भी देश को गुलाम बनाने के लिये सबसे पहले उसके रहवासियों को
उनकी भाषा से दूर कर दिया जाता हैं। 1984 नाम के उपन्यास में बताया गया हैं कि अगर
लोगो से शब्द छीन लिये जाये, तो आप उनकी सोचने की शक्ति भी छीन लेंगे और आप उन्हें
वहीं चीज सोचने पर मजबुर कर देंगे जो आप चाहते है वो सोचे । शायद अग्रेंजो ने हमें
इसी तरह गुलाम बनाया और गुलाम बनाये रखा और शायद हम अभी तक गुलाम बने हुए हैं। बड़ा
बेकार लगता हैं जब माँ बाप बच्चें पर अग्रेंजी थोप देते हैं, बच्चा अग्रेंजी
जानेंगा तभी तो अच्छे स्कूल में अच्छे अंक लाकर किसी अच्छी नौकरी पर लग जायेंगा।
बात सिर्फ़ हिंन्दी की नहीं,
सारी क्षेत्रिय भाषाओं और उनकी दुर्गति की हैं। हर व्यक्ति को अपनी जड़ों से उखाड़ा
जा रहा हैं, उसकी सोचने की शक्ति उससे छीनी जा रही हैं, उसका मुल्यांकान बस उसकी
एक विदेशी भाषा पर पकड़ से किया जा रहा हैं। हम वापास से गुलाम बन रहे हैं, बस इस
बार हमें गर्व है इस चीज पर । बच्चों को अग्रेंजी में बोलता देख माँ बाप फ़ुले नहीं
समाते हैं, कक्षा में जो बच्चा अग्रेंजी ढंग से ना बोल पाता हो, उसे शिक्षक जाहिल,
अनपढ़, मंदबुद्धि और अनेक विशेक्षणों से नवाज देते हैं। अग्रेंजी बोलने वाले लोगो
को सभ्य समझा जाता हैं, आदरणीय और अग्रिम समझा जाता है और हिंदी बोलने वाले को
ग्रामिण । किसी बड़े रेस्टोरेन्ट जाओं, तो आपको और वहाँ के वेटरों को दोनों को ना
चाहते हुए भी अग्रेंजी में बात करनी पड़ती हैं, बड़ा बुरा लगता हैं उनका संघर्ष
देखाना अग्रेंजी के साथ। खाना देशी, खाने वाले और बनाने वाले और परोसने वाले देशी
तो फ़िर मंगवाने का माध्यम देशी क्यूँ नहीं।
इससे पहले की कुछ समझदार
लोग मुझे रुड़िवादी और वक्त के साथ ना चलने वाला समझ लें, मैं ये स्पष्ट कर देना
चाहता हुँ कि मुझे अग्रेंजी से कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं हैं, और मुझे विश्वास
हैं बहुत लोगो से जो दिन भर अग्रेंजी में बड़बड़ाते रहते है मेरी अग्रेंज़ी 100 गुना
अच्छी हैं। भाषा का प्रथम उद्देश्य केवल विचारों को प्रकट करना हैं। अग्रेंजी क्या
व्यक्ति को फ़्रेंच, जरमन, स्पेनिश सब सीखना चाहिये, सारी भाषाओं का साहित्य पढना
चाहियें। कितने लोग जो अग्रेंजी का झंडा थामे आगे रहते हैँ उन्होंने एक भी अच्छा
अग्रेंजी उपन्यास पढ़ा हैं ? 90% लोग तो अग्रेंजी गलत ही बोलते है, पर हिंदी बोलने
वालो का उपहास करते हैं।
कई देश है जहाँ के लोग
अग्रेंजी तो जानते है पर वहाँ पर हर जगह आपको उनकी मातृभाषा की ही छाप दिखेंगी। हम
भी वहीं काम करते हैं, कालेज के केंटीन से अपनी विदेशी कंपनी के आलीशन आफ़िस में,
सारे वार्तालाप होते हिन्दी या स्थानीय भाषा में ही हैं, बस किसी नई जगह, नये लोगो
के सामने खास कर किसी बड़े व्यक्ति के सामने हमें हिंदी के प्रभाव पर संशय होता है
और हम अग्रेंजी की ढ़ाल ले आते हैं।
आइयें इस सोच को, इस
मानसिकता को बदलें। अग्रेंजी भी सीखे, अच्छे से सीखें पर इसे सर पर ना चड़ायें।
अपनी स्थानीय भाषा बोलें, आप ज्यादा अच्छे से खुद को प्रकट कर पायेंगे, उचित
तरीकें से कर पायेंगे, गलत लिखी या बोली गयी अग्रेंजी की 10 पक्तिंयों से स्थानीय
भाषा की एक पक्ति अच्छी। कितने भी पिज्जा बर्गर खालो, पेट तो आखिर माँ के हाथ की
बनायी रोटी से ही भरता है । सभी भाषाओं का सम्मान करते हुए आइयें सभी को उस स्थान
तक ले जायें ताकि किसी को भी बोलते हुए हमें शर्म ना आयें ।
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