Friday, May 21, 2021

कोरोना कथा

आज 31  दिन है जब पहली बार कोवीड के लक्षण शरीर में आये थे और रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद 28  दिन है।  ये कहना अतिश्योकित नहीं होगा की पिछले 4 हफ्तों ने जिंदगी काफी कुछ बदल दी है,  जीवन और दूसरी कई चीजों के प्रति विचार भी अब बदल गए है। जब बुखार बढ़ गया था तो व्हाट्सप्प पर एक स्टेटस डाला था, कई शुभचिंतको ने उस दिन हाल जाने थे और २-३ मित्रो ने सलाह दी थी की आजकल राजनीति पर कुछ लिखते नहीं हो, जब ठीक हो जाओ तो सरकार के बारे में कुछ लिखना जरूर। वैसे तो आजकल लिखना उतना आसान नहीं रहा जितना कुछ वर्ष पहले था, अब विचार दिमाग में आते नहीं है ज्यादा और आते भी है तो इतना संयम और एकाग्रता नहीं रही है की विचारो को शब्दों में ढाल सको।  पर चुकी जोश जोश में दोस्तों को बोल दिया था की कुछ तो लिखेंगे और उस समय तो थोड़ा गुस्सा भी था और चिढ भी तो लगा था की सारी अव्यवस्था का निचोड़ एक ही लेख में डाल  देंगे। 

अब जब बीमारी पूरी तरह झेल ली है तो कई अलग अलग तरह की विचारधाराएं सामानांतर चल रही है दिमाग में। रिपोर्ट जिस समय पॉजिटिव आई थी ये वही समय था जब हॉस्पिटल में बेड भर चुके थे और ऑक्सीजन की कमी चारो और फ़ैल गई थी, इतना समझ आ गया था कि बहुत ही गलत समय बीमार हुए है, और अब भगवांन ही मालिक है अगर कुछ गंभीर समस्या आई गई तो।  ऊपर से घर के चार लोगो में से एक साथ तीन लोग बीमार हुए थे, सब अलग अलग कमरों में मास्क लगाकर बैठे इंतजार करते हुए की कब ठीक होंगे।  

इस बीमारी की एक विचित्र बात है, पहले २ दिन ये आपको अहसास नहीं होने देगी की आगे कितने बुरे दिन आने वाले है।  बुखार आएगा एक या दो दिन फिर आपको लगेगा की आप ठीक हो रहे हो और फिर ये जो पलट कर लात मारेगी तो चारो खाने चित कर देगी। अपने साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, 20 को थोड़ी हालत ख़राब हुई, 21 को थोड़ा सम्भले, 22  और 23 को पूरा दिन सर पकड़ कर बैठे रहे, माइग्रएन वालो को वैसे भी ये बात पता होती है की बीमारी कोई सी भी आये किसी दूर के परेशान करने वाले रिश्तेदार की तरह अपना माइग्रेन का सरदर्द तो आएगा ही और आप ओरिजिनल बीमारी छोड़ कर अपने सरदर्द से ज्यादा परेशान रहोगे, तो 22 और 23 माइग्रेन को गाली देने में ज्यादा बिता। 


बाहर निकलने की वैसे तो हालत थी नहीं, टेस्टिंग किट भी हर जगह ख़त्म हो रही थी या लम्बी कतारे लग रही थी, पूरा प्रयास यही था की कोई घर से सैंपल लेने वाला मिल जाए, बहुत मशक्क्त हुई उसमे भी, कही से कोई ठोस जवाब नहीं मिल रहा था और 900 की जांच के कोई 1500 तो कोई 1800 मांग रहा था। बहुत फोन घुमाने के बाद जिस आदमी ने सुबह आने को हां बोली वो आया ही नहीं, हाँ ना सुनते सुनते ऐसे ही एक दिन निकल गया, फिर फोन घुमाये एक और इंसान ने हाँ बोला अगले दिन सुबह का, सुबह की शाम हो गई वो नहीं आया, अब लग रहा था बाहर जाना ही पडेगा, बंदा  फिर बोला 5 बजे आएगा फिर 7 बजे फिर रात को 9 बजे, जब पूरी उम्मीद छोड़ दी थी तब साढ़े दस बजे रात को बंदा पधारा, उसने बताया की उसकी पत्नी को जॉन्डिस हो गया है और वो उसे  अभी बॉटल  लगवा के आ रहा है. एक इज्जत सी आ गई उस बन्दे के लिए मन में की व्यक्तिगत जीवन में इतनी समस्या के बावजूद आज वो आ गया।  कोरोना का टेस्ट भी अत्यंत दुखदाई प्रक्रिया है, जो स्वेब अब तक आप जीवन में बस कान साफ़ करने के लिए उपयोग करते हो, वैसा ही एक बड़ा सा स्वेब पहले आपकी नाक में अंदर तक घुसा कर उसको कुछ सेकंड घुमाया जाता है, ऐसा लगता है जैसे दिमाग ही हिला रहे हो पूरा फिर वही प्रक्रिया मुँह के अंदर की जाती है, बहुत ही बेकार सा लगता है कुछ मिनट फिर. ये बात २२ की रात की है. 


२३ पूरा बीत जाने के बाद रात को २ बजे रिपोर्ट प्राप्त हुई।  जब पहली बार आप रिपोर्ट में खुद के आगे पॉसिटिव देखते हो तो अनगिनत विचार आपके मन में आते है।  पहले तो लगता है ठीक है, इतने लोगो को हुआ है, हमें भी हो गया, कौन सी बड़ी बात है, कुछ दिन का कष्ट सहना है फिर हो जाएंगे ठीक, फिर आपको  ध्यान आता है की भैया ये दूसरा स्ट्रेन थोड़ी टेढ़ी चीज है और मन फिर सोचता है की कोविड की गणना में एक्टीव केस में तो आ गए, यहाँ से अब रिकवर में भी जा सकते है या फिर थोड़ी बहुत प्रोबेबिलिटी है मृत्यु वालो में भी जा सकते है।  बिस्तर पर तो गए पर नींद तो कोसो दूर थी उस दिन, यूट्यूब खोलकर बहुत सारे वीडियो देखना चालू कर दिए की अब क्या करे, डॉ  के के अग्रवाल कर के एक शख्स जम गए की ये आदमी अच्छा ज्ञान दे रहा है, ये दुर्भाग्य है की 27 अप्रेल को वे भी संक्रमित हो गए और 18 तारीख को हमारे बीच नहीं रहे, सोच कर ताज्जुब भी होता है और डर भी लगता है कि  इतना ज्ञानी और साधन- संपन्न इंसान जो महीनो से देश को बीमारी से बचा रहा था वो भी नहीं बचा।  23 को ही सीटी स्केन करवाने चले गए।  यहाँ पर एक सुखद अनुभव भी हुआ, चुकी शहर में लॉक डाउन लग गया था, तो समझ नहीं आ रहा था की जाए कैसे, बहुत से समाजसेवी संगठन उस समय लोगो की मदद कर रहे थे, ऐसे ही एक व्यक्ति को फोन किया, उसके बाद हमारे वार्ड के पार्षद का फोन आया की क्या मदद चाहिए , समस्या सुनाने के बाद एक RSS शख्स का फोन आया की एम्बुलेंस दे या ऑटो, हमने कहा की एम्बुलेंस जितनी बुरी हालत तो नहीं है, थोड़ी ही देर में उन्होंने एक ई रिक्शा का प्रबंध कर दिया। 


बहुत ही अजीब तजुर्बा था, जिन सडको पर बचपन से बस भीड़ देखी थी वहा बस सन्नाटा था, खामोशी, कोई हार्न नहीं बच रहा, कुछ समान नहीं बिक रहा, कोई बहस नहीं कर रहा।  जगह जगह पुलिस के बैरिकेड और एक खामोश उदासी। सीटी स्कैन का भी जीवन का पहला अनुभव ही रहा, अब तक तो बस फिल्मो में ही देखा था।  उस मशीन के अंदर जाकर आपके दिमाग को एक बार तो लग ही जाता है की गुरु गंदे फसे है इस बार। वापस आ रहे थे जब तो कोई बड़ा अधिकारी सडको पर दौरा कर रहा था. फ़ौरन पुलिस वाले ने चिल्ला कर बोला हमारे रिक्शा को की छुपा जल्दी से और उसने एक सकरी सी गली में रक्षा घुसा दिया।  बड़ा बुरा लगा ये नौकरशाही देख कर, की कितना डर है पुलिस को अपने अधिकारियों से की हम जैसे बीमार को ले जा रहे रिक्शा को भी छुपाना पड़  रहा. रात को भी २ बार RSS की तरफ से फोन आये की खाने की व्यवस्था कर दे क्या , चुकी पापा खाना बना रहे थे घर पर तो नहीं लिया पर अच्छा लगा की पीड़ित लोगो को खाने की दिक्कत नहीं आ रही. अगले दिन रिपोर्ट लेब से लाने के लिए भी हमें RSS की मदद लेनी पड़ी।  मेरे कई  बुद्धिजीवी दोस्तों को RSS पसंद नहीं है, पर सारी  राजनीति एक तरफ, RSS के कार्यकर्ता भी हम और आप जैसे लोग रहते है और हर संकट में वो मदद तो करते है, उनके अच्छे कार्य को सिर्फ आपकी राजनीतिक विचारधारा की वजह से झुठलाना उचित नहीं है। बहुत से लोग धर्म का भी मजाक बनाते रहते है, पर सारे ही धार्मिक संगठनो ने काफी मदद की है  लोगो की, किसी ने कोविड बेड लगाए, किसी ने ऑक्सीजन दी, किसी ने खाना दिया। कुछ लोग बस सवाल पूछते रह गए, इस धर्म ने क्या किया उस धर्म ने क्या किया, थोड़ा आँखे खोल कर देखी जाए तो हर जगह अच्छा दिख ही जाता है। भगवान की कृपा से चेस्ट स्कैन में भी कोई दिक्क्त नहीं आई।  






24 और 25 वैसे शान्ति से ही गुजरा, सब घर में आइसोलेट  तो हो गए थे, अकेले अलग अलग कमरों में पड़े हुए अपने विचारो के साथ, बीच में कभी फेसबुक या इंस्टाग्राम खोल लो तो या तो जनता का सरकार के प्रति गुस्सा दिखता था या फिर किसी की मदद की गुहार। किसी को अस्पताल में बेड नहीं मिल रहा तो किसी को कोई दवा नहीं मिल रही, ओक्सीजन भी  गायब हो रही देश से।  उस वक्त आप बस भगवान् से प्रार्थना भर ही कर सकते हो की मेरी कभी ऐसी नौबत ना आये और मेरे परिजनों की भी। इन २ दिन बस एक चीज अच्छी थी की शरीर कष्ट के बावजूद भी चल रहा था, खाना खाने में दिक्क्त नहीं थी और खुद के बर्तन भी धो कर रख लेने की ताकत थी।  दोस्त लोग भी बराबर हाल चाल पूछ रहे थे, कई लोगो से जिनसे महीनो से बात नहीं हुई थी उनसे भी बात हुई , अच्छा लगा ये देख कर की आज भी शुभचिंतक कई है अपने जीवन में।   ये भी सोचने में आ रहा था की पिछले साल के लॉक डाउन में कैसा खुशनुमा माहौल था , कभी रामायण महाभारत देख रहे होते थे , कभी रसगुल्ले समोसे बना रहे होते थे , छत पर जाओ तो लगता था की पूरा शहर छत पर आ गया।  पर इस साल तो जैसे सब वीरान है, हवा में भी मायूसी है और हम अभी कोशिश में है की जल्दी से ठीक हो।  उस समय SPO2 भी 97 के आस पास चल रहा था, कमजोरी हर दिन बढ़  रही थी ।  सुबह सुबह एक और बन्दा इंजेक्शन भर के खून ले गया था, D  Dimer, CBC, CRP ये सारे टेस्ट भी जरुरी होते है। अगले १० दिन में चार बार और हुए ये टेस्ट।  


ये कहना अतिशयोक्ति  ना होगा की 26 से 30 अप्रेल का समय मेरी जिंदगी का बहुत ही पीड़ादायक और बेकार समय रहा है।  26 की शुरुवात मेरे एक बहुत ही अजीज मित्र जो मात्र 31 वर्ष का था के निधन से हुई, दिमाग विचारशून्य हो गया की कैसे, क्यों , किसलिए।  एक बहुत ही अच्छा इंसान जो जीवन में आगे बढ़ रहा था अपने सपनो के साथ, उसका इतने असमय चले जाना एक घाव कर गया जो अब तक पीड़ा दे रहा है।  शरीर भी टूटने लगा था, चलने में दिक्क्त आ रही थी, सीढिया ऊपर नीचे करने पर तो प्राण ही निकल रहे थे, खाना खाने में भी तकलीफ होने लगी थी, शरीर का हर हिस्सा दर्द करने लगा था, बस बिस्तर पर पड़े रहो और सहो, यही जीवन रह गया था।  CRP भी बड़ा हुआ था जो की एक चिंता का विषय था।  


पुरे कोविड कांड में ३ पल ऐसे आये थे जब मुझे लगा था की में जीवन के निम्न स्तर पर पहुंच गया हूँ।  एक 27 को सुबह ३ बजे जब में कमजोरी से बाथरूम में बेहोश हो गया था और २० मिनिट बेहोश ही पड़ा रहा फर्श पर, होश आने पर में २० मिनट तक और फर्श पर बैठा रहा क्योकि मुँह से आवाज निकलने की भी ताकत नहीं थी। मुझे सीढिया उत्तर कर वापस अपने बिस्तर पर आने में अपनी पूरी शारीरक और मानसिक ताकत लगी और फिर में बस ख़त्म हो गया इस आशा में की सुबह जीवित बच जाऊ।  सुबह आयी पर शरीर की ताकत ख़तम हो गयी थी, अब खाने के लिए उठने की ताकत भी नहीं थी।  अब २ फिट दूर रखी पानी के बॉटल उठाने की ताकत भी नहीं थी।  लेटें लेटें बस जैसे तैसे खाने के कुछ अंश मुँह में डाल लो , ये जंग अब स्वस्थ होने की नहीं है जल्दी, ये जंग अब जीने की है क्योकि आस पास तबाही मच रही है।  


ये दूसरा पल था निम्न स्तर का, पुरे दें बिस्तर पर आधी बेहोशी में, मुझे मेरी जिंदगी के अंश दिख रहे थे, ऐसी यादे जो पहले कभी नहीं आई, कभी कोटा की कभी इंदौर की कभी पुणे की, ना जाने क्या क्या दिख रहा था और उसी के साथ कुछ झटको से वापस से असली जीवन में।  SPO2 अब 95 के आस पास घूम रहा था। अत्यंत तकलीफ वाली खांसी चालू हो गयी थी जिससे सांस भी फूल रही थी।  इस दिन मैंने वो किया जो मैंने आज तक कभी नहीं किया था, ये सोचना की शायद एक सम्भावना है की में इससे बाहर ना हूँ , मैंने अपने बैंक के खातों और दूसरी जानकारी घर वालो को देना चालू कर दी।  


मैंने फेसबुक और इंस्टाग्राम  खोलना छोड़ दिया था क्योकि में जैसे तैसे अपनी जीवटता जुटाने की कोशिश करता था और फेसबुक मेरी उमीदो को धराशाही कर देता था। बीमार होने के पहले मुझे भी सरकार पर काफी गुस्सा था, केंद्र और राज्य दोनों पर , क्योकि सब लोगो की तरह मुझे भी दिख रहा था की सरकार ने अपनी महत्वकांशा  के चलते देश को एक बहुत विकट हालत में ला दिया है।  प्रधानमंत्री के पेज पर अगर बस उनकी बंगाल की रैली के वीडियो दिखे तो कही न कही तो लगता है की चूक हुई है , लापरवाही हुई है , पहली लहर में मृत्यु के आकड़े बस आकड़े थे, इस लहर में वो चेहरे बन गए , आपका कोई रिश्तेदार, आपका कोई दोस्त, आपका कोई सहकर्मी , परिवार के परिवार नष्ट हो गए , पर सरकार को चुनाव के आगे कुछ ना दिखा, मन में आक्रोश मेरे भी था , बहुत बार सोचा की इस पर कुछ लिखेंगे पर जैसा की मैंने कहा की आजकल विचार शब्दों में परिवर्तित नहीं होते है तो नहीं लिख पाया, गलती थी मेरी।  


पर जब आप को खुद कोविड हो जाता है तो फिर आप बुद्धिजीवी नहीं रह जाते हो, आप बस एक चिंतित और डरे हुए इंसान मात्र रह जाते हो।  जब कोई इंसान बड़ी से पोस्ट के साथ जलती हुई चिताओ के फोटो डालता है और सरकार को कटघरे में खड़ा करता है और उसी समय आपका  SPO2 94 से 93 होता है, तो आपको उस पोस्ट में लिखा तर्क सही है या गलत से फर्क नहीं पडता, आपको उन चिताओ में अपना चेहरा दिखता है या फिर अपने किसी अपने का जो आपके साथ ही कोविड पोसिटिव है।  जब कोई मौत के आकड़े की कोई पोस्ट डालता है या फिर अस्पताल में कोई परिजन किसी अपने की लाश पर विलाप करता हुआ तो आपका दिमाग उस लाश पर ज्यादा फोकस करने लगता है।  आप बस ये सोचते हो की काश मुझे कुछ उम्मीद भरा पड़ने को मिल जाए , काश कोई बोल दे की तुम ठीक हो जाओगे, तुम चिंता ना करो, जीवन की डोर थामे रखो, ये वक्त बीत जाएगा, तुम इस बिस्तर से उठोगे किसी दिन , अपने दोस्तों के साथ हंसी मजाक करोगे , अपना पसंदीदा  खाना खाओगे, यूरोप घूमने जाओगे , एक कार और बड़ा घर खरीदोगे। पर दूर दूर तक सोशल मिडिया पर आपको बस शमशान में जलती चिताये और नदी में बहती लाशें ही मिलती है और उसके नीचे  तर्क वितर्क करते लोग , कोई केंद्र को गाली देता हुआ कोई राज्य को कोई मिडिया को , कोई पोस्ट डालने वाले शख्स को , पर आप को इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता।  आप तो कुछ ऐसा ढूंढ  रहे हो जो आपको जीवन की आस दे, जो आपके टूटते हुए शरीर में कोई शक्ति का संचार कर दे , जो आपके मुरझाये चेहरे पर २ पल की हंसी ला दे , अफ़सोस आपको सोशल मिडिया पर कुछ नहीं मिलेगा, दूर रहिये इससे जब तक ठीक नहीं हो जाते।  


इस बीमारी में कभी कभी आप आनंद के राजेश खन्ना जैसे हो जाते हो, जो पुरे जीवन भर एक मस्तमौला इंसान होता है पर अपने जीवन के अंतिम पल उसे जीवन से लगाव हो जाता है, वो अब जीना चाहता है और आप भी अब जीना चाहते हो भले ही इसके पहले जीवन से कितना भी बैर रहा हो। 28 और 29 ऐसे ही आधे जगे आधे सोये बीत गए , बहुत से लोगो के मेसेज आ रहे थे और मेरे पास जवाब कुछ नहीं था, कुछ को मैंने झूठ बोल दिया की अब ठीक हो रहा हु , क्योकि कई बार इस मौको पर लोगो के भले मन से दिए हुए सुझाव और अनगिनत प्रश्न भी गुस्सा दिला देते है।  29 तक खांसी ने भी विकराल रूप धारण कर लिया था , अब यक्ष प्रश्न आ गया था जीवन में की अस्पताल में भर्ती हुआ जाए या नहीं और हुआ जाये तो कैसे क्योकि बेड तो थे ही नहीं कही पर।  30 को ये फैसला लिया गया की किसी बड़े चेस्ट स्पेशलिस्ट को दिखाया जाए, 2 घंटे इंतज़ार करने के बाद भी मेरे पापा को एक डॉक्टर का अपॉइंटमेंट नहीं मिला।  किस्मत से दोपहर को एक दूसरे मशहूर डॉक्टर का समय गया।  


यहाँ निम्न स्तर का तीसरा पल आया, डॉक्टर 2 की जगह साढ़े तीन आएंगे ,  लॉकडाउन है तो वापस घर नहीं जा सकते , कही कोरोना मरीज के लिए तो वेटिंग एरिया है नहीं , पापा ने सड़क के पास एक चादर बिछा दी और मैँ 2 मिनिट उस पर बैठने के बाद कमजोरी से गिर गया।  मुझे बहुत कम मौको पर ही खुद पर दया आयी है, ये एक मौका था, मयंक शर्मा जो देश के प्रतिष्ठित`कालेज से MBA  किया है और थोड़े महीने पहले बड़े बड़े होटल में ठहरता था, बड़ी बड़ी पार्टी जाता था और बड़े बड़े लोगो के बीच उठता बैठता था वो आज सड़क पर पड़ा हुआ है , एक छोटे से वायरस ने इतना मजबूर कर दिया।  समझ नहीं आया खुद पर शर्म आयी या तरस या अपनी बेबसी पर गुस्सा।  गर्मी में खाली सड़क पर माइग्रेन के दर्द और भयानक खासी के साथ जीवन की डोर को जैसे तैसे थामे बस इतंजार करते हुए , लगा एक सदी बीत गई उन 90 मिनिट में।  डॉक्टर की दवाइयों का बहुत तेजी से असर हुआ अगले दिन।  उठने बैठने की ताकत वापस आने लगी , हाथ पैर थोड़े हरकत करने लगे, दिमाग में हफ्ते भर से पड़ी धुंध साफ़ होने लगी , हालांकि चलने फिरने जैसे नहीं हुए पर फिर भी लगा की अब सबसे दुखद पल ख़तम हो गए है।  


के के अग्रवाल जी ने कहा था की 8, 9 ,10 दिन अगर बुखार ना हो तो आप घर वालो से मिल सकते हो मास्क लगा कर अब आपका वायरस रेप्लिकेट नहीं होगा , कितना अजीब लगता है अपने ही घर में अपने ही घर वालो से हफ्ते भर बाद मिलना।  हुशि भी मिलती है की चलो सब अब स्वस्थ होने की राह पर है। वापस से बैठ कर खाना, बिना खासे कुछ मिनट बात कर पाना , छोटी छोटी बाते ही अब बड़ी जीत  लगाने लगती है। बहुत धैर्य और ताकत लगी फिर खुद को नार्मल बनाने में, बीच में कुछ परिचितों को खोया, पूरी दुनिया को तड़पते देखा , किसी के पिता के लिए बेड नहीं मिल रहा , किसी की माँ  को रेमेडीसीवीर  नहीं मिल रहा, किसी के भाई का SPO2 तेजी से घट रहा और आप ये सब अपने वाट्सअप स्टैट्स और ग्रुप पर देख रहे हो और सोच रहे हो की कितनी मजबूर है दुनिया साथ ही कितनी बेरहम भी। 


कितना कुछ बदल जाता है कुछ ही दिनों में, मार्च के महीने में अपने स्टार्ट अप के लिए में अनुभवी लोगो से सलाह ले रहा था, हम लोग नए प्लान पर काम कर रहे थे, हमारे सपने ऊंची छलांगें मार रहे थे और हम काफी ऊर्जा से भरे हुए थे कुछ बड़ा करने को, कितना कुछ करना था अप्रैल में और यहाँ अब सारे सपनो पर एक प्रश्न चिन्ह लग चुका था।  पिछले साल मैंने काफी व्यायम कर के 10 किलो वजन कम किया था, उस समय ये सोचा था जिस दिन 70 से नीचे वजन जाएगा में वीडियो डालूंगा अपनी मशीन का इस केप्शन के साथ की 2014 के वजन पर आ गए।  पिछले साल 71.6 के बाद मैं थोड़ा आलसी हो गया और फिर वजन भी ज्यादा, बीमारी की शुरुआत में जो वजन 74.6 था वो २ हफ्तों में गिर कर 68.4 हो गया, एक ऐसा पल जिसका मै कब से इतंजार कर रहा था वो इस तरीके से आएगा मैंने कभी सोचा भी नहीं था, जाहिर है मैंने वीडियो नहीं डाला। 



मुझे अभी तक समझ नहीं आया की मुझे दुखी होना चाहिए की मैंने और मेरे घर वालो ने इतनी तकलीफ सही या फिर खुश होना चाहिए की हम ज़िंदा बच गए और अब सवस्थ है।  मुझे ये भी समझ नहीं आता की दुनिया अच्छी है या बुरी ,जहाँ  इतने लोग तन मन धन से अपरिचितों की सेवा कर रहे तो कुछ लोग नकली दवा बना रहे , कालाबाजारी कर रहे , असपताल में बिस्तरों तक का व्यापार हो रहा।  इतना विरोधाभास है आस पास की मन ठीक ही नहीं हो पा रहा है।  कैसे कोई चंद पैसो के लिए अपना जमीर बेच देता है मुझे आज तक समझ नहीं आता, आपके बनाये हुए नकली इंजेक्शन से बहुत से लोग मर जायेंगे पर आपको कोई तरस नहीं है किसी के परिवार के लिए, आपको बस वो थोड़े से पैसे दिख रहे , कैसे मनुष्य इतना स्वार्थी हो जाता है पता नहीं। ये लिखते समय भी मेरे हाथ कपकपा रहे है।  


मुझे ये भी नहीं पता की गलती किसकी है , सरकार की या लोगो की। सरकार तो जनवरी में ही अपनी जीत का पताखा लहरा चुकी थी और कह चुकी थी की अपना तो हो गया, अपन दूसरे देशो की मदद करेंगे।  बीमारी फैली तो सरकार ने कहा की लोगो ने भीड़ लगा दी , मास्क नहीं पहना। मास्क तो सरकार के मंत्रियो ने भी चुनाव प्रचार में नहीं पहना, भीड़ तो उन्होंने भी बहुत लगाई।  वही बहुत से लोग दिन रात सरकार को गाली देते रहे, ये लोग भी फरवरी में बिना मास्क के कभी पार्टी कर रहे थे, कभी किसी की शादी में 10 लोगो के साथ बिना मास्क के फोटो खींचा रहे थे।  कुछ लोग तो पर्यटक स्थलों पर भी घूम रहे थे बिना मास्क लगाए।  तो फिर गलती किसकी है ? अब फर्क नहीं पड़ता , जिनको जाना था वो जा चुके, जिनको तड़पना था वो तड़प चुके, उम्मीद है अब आगे कोई गलती नहीं हो , बहुत ही लम्बी जंग बाकी है।  


पर मन के एक कोने में एक इच्छा आ गयी है जो बहुत दिनों से नहीं थी, की इंतज़ार करना है, दुनिया के नार्मल होने का, फिर से ठेलो पर चाट खाने का, फिर से किसी शादी में जाकर आम का झोलिया पीने का, फिर से किसी भीड़ भरे मंदिर में दर्शन करने का, स्विमिंग पूल में कूदने का, किसी पहाड़ पर जा कर Maggy खाने का, वापस से बड़ा आदमी बनाने का सपना देखना का, किसी की आँखों से आँखे टकरा जाने का , किसी दोस्त को गले लगाने का, किसी अजनबी से रेल के किसी डब्बे में राजनीति पर चर्चा करने का, किसी झरने के पास फोटो खींचने का. अब बस जीवन एक इंतजार है और इसका ऊर्जा का स्त्रोत ये इच्छाएं है जो पूरी करनी है।  


इस उम्मीद में की दुनिया फिर से खिलखिलाएगी , भागेगी और हम फिर से डूब  जाएंगे इस आवेश में , आपसे विदा लेते है।  बताएगा जरूर कैसा लगा या पोस्ट। 

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