Tuesday, September 23, 2014

शरीफ़ों की शराफ़त

हममें से ज्यादातर लोग खुद को शरीफ़ों की पदवी से नवाजना पसंद करते हैं। लड़की के ब्याह के लिये ना केवल शरीफ़ लड़का अपितु पूरा के पूरा खानदान शरीफ़ तलाशा जाता हैं। हम शरीफ़ मोहल्लों में रहना पंसद करतें हैं। केवल शरीफ़ लोगों से संपर्क रखते है। फ़िल्म या खाना खाने भी वही जगह पर जाना पंसद करतें हैं जहाँ पर शरीफ़ लोग आते जाते है, कुल मिला कर देखा जाये तो आम मध्यमवर्गीय भारतीय आदमी की पूरी जिंदगी शरीफ़ों और शराफ़त के बीच कटती हैं।

बचपन में जब बच्चें शरारत करते है तो माँ बाप ये कह कर डाँटतें हैं कि तुम में शरीफ़ों वाले लक्षण नहीं दिखायी दे रहें। बच्चें जब अपने से थोड़े नीचे स्तर वाले और तन पर गंदे कपड़े पहने हुए बच्चों के साथ खेलते हैं तो माँ बाप झिड़क कर कान मरोड़तें हुए ले जाकर कहते हैं कि शरीफ़ बच्चों के साथ खेला करो। कंचे, गिल्ली डंडा, पत्ते और ऐसे अनेंको खेल है जिन्हें आधुनिक मध्यम वर्ग शरीफ़ो के खेल नहीं मानता। सबने आस पास शराफ़त का एक माया जाल बुन लिया हैं जहाँ हम अपने आप को ना केवल सुरक्षित मानते है, साथ ही साथ सभ्य और स्वच्छ भी।

वक्त के साथ साथ शरीफ़ शब्द के मतलब में भी बहुत बदलाव आ चुका हैं। बस में या रेल में जब कोई आदमी जबरदस्ती आपकी सीट पर कब्जा कर लेता है तो आप खुद को शराफ़त की दुहाई देते हुए कोई और जगह तलाश लेते हैं, जब आटो वाला ज्यादा पैसे लेने के लिये झिकझिक करता हैं, तो आप खुद को शरीफ़ व्यक्ति समझ झुक जातें हैं। गणेश चतुर्थी और नवरात्रि के समय जब कोई चंदा माँगने आता हैं तो आप ना चाहते हुए भी ज्यादा रुपये दे जाते हैं। बाहर के मंदिर में जब जोर जोर से भजन बजते है तो आप तकलीफ़ें सहते हुए भी चुप रह जाते हैं। शरीफ़ लोग गुंडो के मुँह नहीं लगते, ऐसा सोचते हुए हम तमाम अत्याचार सहते जाते है। बहुत ही वाजिब वजह चुन ली हैं हमनें अपनी कायरता को छुपाने के लिये।

चुनाव के समय जोर जोर से बज रहें लाउडस्पीकर और उसकी आवज से परेशान हो रहे घर के बुजुर्गों और बच्चों को हम ये बोल कर समझा देते हैं कि राजनीति में बस गुंडागर्दी रह गयी हैं, और हम शरीफ़ लोग हैं। यही शराफ़त का पाठ हम अपने बच्चों को पढा कर उन्हें भी कायर बनाते हैं, कोई दूसरा बच्चा उसे तंग करता हैं तो हम उसे यही बोलते हैं की उससे दुर रहा कर, अलग रहा कर, कभी उसे जवाब देना नहीं सीखाते और क्यों सीखायेंगे , हम शरीफ़ लोग जो हैं। बच्चा जब स्कूल में अध्यापकों की दादागिरी और गलत व्यव्हार सहता हैं और कुछ करने का सोचता हैं तो हम उसे यही बोलते है कि कौन सा तुझे उम्र भर यहीं रहना है, बस पढाई पर ध्यान दे और निकल जा यहा से।कमोबश यहीं स्थिति कालेज में रहती है जब बच्चा पहले सीनियर लोगों के अत्याचार सहता हैं और फ़िर प्रोफ़ेसर के अन्याय और यही सोच कर कुछ नहीं कर पाता कि आवाज उठाने के दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे।



शरीफ़ की परिभाषा अब बस सहना मात्र रह गया हैं, हर जुल्म हर अत्याचार हर वो चीज जो गलत हो रही है उसे आँखे मुंद कर देखो, और खुद के शरीफ़ होने की दुहाई दे कर टाल जाओ। फ़िल्मों में ये सीन काफ़ी बार दिखाया गया है जब कुछ ग़ुंडे किसी लड़की को तंग कर रहे हो या फ़िर जबरन हफ़्ता वसूली कर रहे हो तो आम आदमी “ शरीफ़ लोग गुंडो से कैसे भिड़ेंगे” ये सोच कर बस तमाशबीन बने रहते हैं। फ़िल्मों में तो एक हीरो रहता ही हैं जो 10-10 गुंडो को साथ में पिटता है पर असल जिंदगी का क्या ? बसों और ट्रेनों मे जब कोई किसी लड़की को परेशान करता है तो वहाँ पर कोई हीरो नहीं होता बस मूकदर्शक तमाशबीन भीड़ जो चाहें तो किसी को भी रौंद सकती है पर चाहने की ईच्छाशक्ति ही नही हैं। मैं क्यूँ किसी के झगड़ें में टाँग फ़साँउ, मेरा क्या लेना देना, यह सोच कर हम आगे बढ़ जाते हैं।

पर क्या इतना निश्चिंत होना सही हैं ? हो सकता है , कल आपके साथ कुछ गलत हो, आपसे हफ़्ता वसूली की जाने लगे, आपके मकान पर कब्जा हो जाये, आप ठगी के शिकार हो जायें, तब भी आप शराफ़त के पुतले बने रहेंगे, तब आप लड़ेंगे और पूरी दुनिया को गाली भी देंगे की आपका साथ कोई नहीं दे रहा, कोई आपके साथ नहीं लड़ रहाँ जबकी आप सही हैं। पर दुनिया को क्यों दोष देना, दुनिया भी आप ही की तरह शरीफ़ हैं, और दुसरों के झगड़ो से दूर रहना पंसद करती हैं। हम सब शराफ़त की आड़ में कायर बन बैठें है, और अपने बच्चों को भी वैसा ही बना रहे हैं, आँख मूंद कर सोने का नाटक भर कर रहे है ताकि कोई लाख चाहे तो भी जगा ना सके।

शरीफ़ वो होता है, जो दुसरो को तंग नहीं करता, दुसरे का बुरा नहीं करता, पर जब बात खुद पर आ जाये तो व्यक्ति को आवाज उठाना पड़ती है, लड़ना भी पड़ता है, मार खानी भी पड़ती हैं और मारना भी पड़ता है। शरीफ़ होने का मतलब दब्बु और कायर होना बिल्कुल भी नहीं है। अपमान का घुट पी कर चुप रह जाना और जो भी गलत हो रहा हैं उसे सहना आपका मजबूर होना साबित करता है शरीफ़ होना नहीं। शराफ़त और कायरता में एक व्यापक पैमाने पर अंतर हैं। अगर आप अपने या अपने किसी अजीज के लिये आवाज उठाते है और लड़ते है तो आपसे आपका शराफ़त का तमगा छीन कर आपको झगड़ालु और गुंडा घोषित नहीं कर दिया जायेगा वरन आप लोगो की नजरों में और उपर उठ जायेंगे और आप खुद की नजरों में से गिरने से भी बच जायेंगे।

तो अगली बार जब कुछ गलत होते हुए दिखाई दे तो उसे सहने या नजरअदांज करने के बजाएँ लड़िये और आवज उठाईयें और सबके लिये एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कीजिए । शरीफ़ बनियें कायर नहीं। दुष्यंत कुमार की इस कविता के साथ आपसे विदा लेता हुँ।
कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।  


No comments:

Post a Comment