Saturday, July 2, 2011

तेरे रुठने की मैं क्यों परवाह करू

तेरे रुठने की मैं क्यों परवाह करू
विरह पर मै क्यों आहें भरू
आँसू मेरे तो कभी देख न सकी
तेरे आँसू की अब क्यों फ़िकर करू
प्यार तेरा क्षणिक था, पूजा तेरी निरर्थ
पत्थर दिल तू पत्थर पूजे, भक्ति तेरी व्यर्थ
खुद को कभी न जान पायी
मुझमें खुदा कैसे दिखेगा
निः छ्ल प्यार न पहचान पायी
अब पछताने से क्या मिलेगा
प्यार को कभी न समझ पायी
अब प्यार को बदनाम करती हो
वफ़ा कभी न कर पायी
अब बेवफ़ा कहलाने से बचती हो
मैं तो तन्हा मुसाफ़िर था
तुम हमसफ़र बन गयी
राहें लम्बी हो चली
अड़चने और बढ गयी
मैने शिकायते न की पर
साथ छुटने का जो था डर
कब खामोशी कमजोरी बन गयी
प्रीत पुस्तक कोरी ही रह गयी
अपनी मंजिल तो पा ली तुमने
दूसरे राहियो को आसरा भी दे दिया
मैं मंजिल से ऐसा भटका
तुम्हारा साथ मंजिल लगा
साथ वो बस छलावा था
वादे वो बस झूठे थे
मोहब्बत की राह चल के मालूम हुआ
हकीकत से परे ख्वाब वे अनुठे थे

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