Saturday, July 2, 2011

संशय और संघर्ष

निकला था जब डगर पर
द्र्ढनिश्चय और विजय की प्रतिज्ञा कर
आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति से सुस्जित
जिगर मजबूत,मन तैयार करने जीत सुनिश्चित

राह के मध्य ही लड़खड़ाये कदम
थमे पग लगे सब छ्द्म्म
बीच मझदार ही अटकी नैया
दिखे न साहिल, क्या करे खैवय्या

तपे तन, मायूस मन गया चैन
घबराया दिल, दिमाग सुन्न, अश्रुपर्वित नैन
बीच राह ही छोड़ी आशा
मन मस्तिष्क चहु और निराशा

सोचा फ़िर हारने से पहले ही
क्यो मान लूँ हार
है जान जब जिगर में
करता रहुँ तब तक वार

ना पलट सकता अब मैं
सफ़र के इस मोड पर
क्यों ना लगा दू पुरी ताकत
शायद पहुँच जाउँ उस छोर पर

बीच में भागने पर क्या मिलेगा
लो ठान तो पहाड़ भी हिलेगा
हारने से तो अच्छा कोशिश करना
पहले ही क्या हार से डरना

क्यो न भीड़ जाऊँ पुनः जीजान से
क्यो न जुट जाऊँ पुन: ठान के
क्यों न करु कोशिश सच्चे मन से
क्यो न चलू पुनः खुद की ताकत जान के

बढाये पग जैसे ही कुछ दुर
लौट आया चेहरे का नूर
दिखी मंजिल चंद कदमो पर
झूम उठा शरीर का अंग हर

पहुँचा जब अपने गंतव्य
लगा सफ़र ही था भव्य
सिखा दोबारा उठना , चलना और लड़ना
और धारा के विपरीत बहना

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